8 सितंबर 2009

७- बिखरा पड़ा है

कल तक था जो सिमटा-सिमटा
आज वो सब-कुछ बिखरा पड़ा है
लगता था जो
अपना - अपना
जग सारा वो बिखरा पड़ा है

सूरज से अब किरनें रूठीं
दिखती चाँद में नहीं चाँदनी
सावन से बरखा है भागी
छोड़ गई गीतों को रागिनी
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें जोश बड़ा है

घर शासक के मिले न शासन
वहाँ तो रहता अब दु:शासन
सभी उड़ाते हैं बेपर की
कौन बचाये देश का दामन
मत वो भूलें
जन-मानस में
आज भी गांधी ज़िन्दा खड़ा है

फोन की घंटी रेल का गर्जन
शाम-सवेरे भागता यौवन
लैपटॉप है पास में फिर भी
लायें कहां से फ़ुरसत के क्षण
ऐसे में अब
कौन ये सोचे
जीवन प्यारा शहद-घड़ा है

--निर्मल सिद्धू

10 टिप्‍पणियां:

  1. लायें कहां से फ़ुरसत के क्षण
    ऐसे में अब
    कौन ये सोचे
    जीवन प्यारा शहद-घड़ा है

    बहुत ही सुन्दर विचार , बहुत अच्छा लिखा, धन्याद

    विमल कुमार हेडा

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  2. उम्मीद से आछा पढने को मिल रहा है...
    वाह निर्मल जी.. आपने बहुत अच्छेविचार लिखे हैं खास कर वो घर शासक वाला अन्तर...
    मीत

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  3. सिद्दूजी ने इस बार कमाल कर दिया और वे नवगीत की मुख्य धारा में दिखाई दे रहे हैं। लैपटॉप जैसी आधुनिकता है तो शहद के घड़े जैसी आँचलिकता भी। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

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  4. निर्मलजी गीत अच्‍छा है फिर भी कुछ प्रश्‍न हैं, यह इसलिए कर रही हूँ कि मुझे समझ आ सके कि इसके पीछे आपका मकसद क्‍या था? जैसे आपने लिखा कि –
    सूरज से अब किरनें रूठीं
    दिखती चाँद में नहीं चाँदनी
    सावन से बरखा है भागी
    छोड़ गई गीतों को रागिनी
    कहीं-कहीं सावन में बरखा जरूर नहीं है और अकाल का माहौल है लेकिन सूरज की किरणें तो प्रखरता के साथ हमें झुलसा रही हैं और चाँद भी खूब चाँदनी बिखेर रहा है। हम सब सीख रहे हैं इसलिए ये प्रश्‍न हैं, कृपया बुरा न माने।

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  5. मेरी दी की कविता कब प्रकाशित होगी यहाँ...
    मुझे इंतज़ार है..
    मीत

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  6. कुछ प्रश्नो के उत्तर-
    1- विशेषज्ञ कहाँ हैं---
    शास्त्री जी सभी गीतों पर जल्दी ही प्रतिक्रिया लिखेंगे। उन्हें एक प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है। वे फ़िलहाल उस कार्यक्रम में व्यस्त हैं। डॉ व्योम भी जल्दी ही आने वाले हैं। मैंने सोचा है कि मैं अपनी प्रतिक्रिया में एक लंबा लेख सब नवगीतों की समीक्षा जैसा बाद में प्रकाशित करूँगी।
    2- मेरा गीत कब छपेगा---
    सारे गीत एक एक कर 20 सितंबर से पहले प्रकाशित हो जाएँगे।
    3- अपना खड़ा... का अर्थ---
    सामान्य अर्थ ही है अजित जी, तुम्हारा अपना जो भी सामने खड़ा है उसे भुजाओं में भरकर गले से लगाओ। भुजाओं में भर भेंटना एक मुहावरा है और काफ़ी प्रचलित है। और अपनो को भुजाओं में भर भेंटने से ही तो बिखरे रिश्ते सिमटते हैं। बस यही अर्थ है पंक्ति का।

    -- पूर्णिमा वर्मन

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  7. Dr.Smt. Ajit guptaji,

    आपकी टिप्पणी का हार्दिक धन्यवाद। जो प्रश्न आपने किया वह भी अच्छा लगा। उसका उत्तर सिर्फ़ इतना ही दे सकता हूँ कि इन बिम्बों के ज़रिये यही बताने का प्रयास किया है, कि जिस वस्तु की जहां आस होती है वह अब वहाँ नहीं मिल रही है। जहां हमें प्रीत की उम्मीद होती है वहीं वह ग़ायब होती है। आपने भी देखा होगा कि धर्मस्थानों से धर्म लापता है। सारे गीत में शीर्षक को ही मद्देनज़र रखा है। विश्व में बहुत बिखराव हो गया है। कभी-कभी तो कुछ भी स्थिर नहीं लगता है फिर भी उम्मीद का दामन पकड़ कर ही चलने में ही कुछ अच्छा होने की संभावना बनी रहती है। आशा है, यह उत्तर आपकी उत्सुक्ता शांत करने में कुछ हद तक सफल हुआ होगा। एक बार फिर धन्यवाद।

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