13 सितंबर 2009

१०- बिखरा पड़ा है

सँवरते हैं केश,चिन्तन किस तरह बिखरा पड़ा है
चेहरा जगमग हुआ भीतर यहाँ कीचड़ भरा है

प्रतियोगिता सौंदर्य की, भाग लेने को सदा
सभा में निर्वस्त्र होती, यह भला कैसी अदा
स्वातन्त्र्य का झंडा उठा कर देह तक को बेचती
मुस्कुराहट छलनी दिल पर,किस तरह की आपदा !

आवरण से झांकता मवाद तो बिखरा पड़ा है
चेहरा जगमग हुआ भीतर यहाँ कीचड़ भरा है

नचाने निकली कभी तो बन गई खुद ही खिलौना
शस्त्र सुन्दरता बनी तो हो गई नर का बिछौना
परिवार की जंजीर तोड़ी, हक की टेड़ी चाल में
बनने चली थी डेढ़ तो व्यक्तित्व बचता आध-पौना

ध्वस्त रिश्तों का महल, मलबा यहाँ बिखरा पड़ा है
चेहरा जगमग हुआ भीतर यहाँ कीचड़ भरा है

दूल्हे राजा सँवर कर तलवार हाथों में लिये
चाँद तारे भूमि पर, शृंगार क्या सजधज किये!
जल मरी पहली दुल्हन उसके लहू की आँच ने
दूसरी शादी-हवन की आग को शोले दिये

दर्द फैला आसमां में, खून तक बिखरा पड़ा है
चेहरा जगमग हुआ भीतर यहाँ कीचड़ भरा है।

--हरिहर झा

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना। बहुत-बहुत बधाई इस लाजवाब रचना के लिए........

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  2. प्रतियोगिता सौंदर्य की, भाग लेने को सदा
    सभा में निर्वस्त्र होती, यह भला कैसी अदा

    हकीकत का ध्यान दिलाती बहुत सुन्दर पंक्तिया , बहुत बहुत बधाई, धन्याद

    विमल कुमार हेडा

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  3. इस रचना के आगे तो निशब्द हूँ....
    स्त्री के जीवन को सामें रख दिया आपने...
    मीत

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  4. Vah Harihar ji,

    What a good poetry. Our values are rotting and spread everywhere like mavad of old soar. Hope we return to our good old value system.

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  5. bahut kunder geet pasand sunder shabdon me avhivyakti ki hai bhav bhi bahut sunder hai
    badhai
    rachana

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