23 सितंबर 2009

१६- गरबा की रात में

गरबा की रात है
थिरकते हैं बदन
और नाचती है गोरियां
दमकते रूप की
भभकती आंच में
हुस्न बिखरा पड़ा है

बच्चों का झुंड
और उनकी चिल्ल-पों में
डूबा मेरा मन
उनकी इस मासूमियत में
मुझे लगे जैसे मेरा
बचपन बिखरा पड़ा है

छलकते जाम खनकती बोतलें
मदिरा के उस नशे में
साकी के महकते इतर में
हलके गहरे धुंए में
टूटे कांच के टुकडों में
मेरा वजूद बिखरा पड़ा है

बारिश नहीं, एक और अकाल
प्यासी धरती की दरारों में
बूढी धंसी आँखों में
दमे की खुल्ल-खुल्ल में
बिवाई से रिश्ते मवाद में
मेरा भारत बिखरा पड़ा है

--शैलेष मंगल

3 टिप्‍पणियां:

  1. अलग अलग परिस्थितियों को एक साथ लिखा,
    एक अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  2. क्या बात है साब... ख़ुशी गम सबको अपने इस नवगीत में पिरो दिया आपने...
    काबिलेतारीफ लिखा है...
    मीत

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  3. बच्चों का झुंड
    और उनकी चिल्ल-पों में
    डूबा मेरा मन
    उनकी इस मासूमियत में
    मुझे लगे जैसे मेरा
    बचपन बिखरा पड़ा है
    bahut hi pyari lines hain pura geet hi achchha hai
    saader
    rachana

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