7 नवंबर 2009

३- साँझ का दीप

रोक नहीं सकती हूँ नभ से
सूरज का अवसान कभी
गोधूली की वेला में मैं
साँझ का दीप जलाती हूँ


कोई दुख अमावस जैसा
कभी किसी को घेरे रहता
कभी कहीं कोई आँसू का कण
अँखियों के कोरों से बहता

सरस स्नेहिल गीतों से मैं
सब का धीर बँधाती हूँ
मैं मंगल वाद्य बजाती हूँ


नीले अम्बर की थाली में
तारक दीप जलाता कोई
उल्काओं की फुलझड़ियों से
दिशा-दिशा सजाता कोई

सतरंगी रंगोली से मैं
सब का द्वार सजाती हूँ
मैं ज्योति पर्व मनाती हूँ


सुख सुषमा की बाँधूं गठरी
जग में अलख जगाऊँ आज
अँजली भर-भर बाँटूं खुशियाँ
ले लूँ सारी पीर -विषाद


उदयाचल के शिखरों से मैं
भोर नयी ले आती हूँ
किरणों की लौ बिखराती हूँ


हर साँझ दीप जलाती हूँ

-- शशि पाधा

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी, प्रवाहमय रचना। भोर नयी ले आती हूँ किरणों की लौ बिखराती हूँ

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  2. अच्छा नवगीत है। परन्तु प्रवाह कहीं-कहीं बाधित हो रहा है। मेरे विचार में निम्नवत सुधार इस नवगीत के प्रवाह को सटीक बना सकते हैं।

    पहले अन्तरे में;

    कभी कहीं कोई आँसू-कण
    अँखियों के कोरों से बहता।

    दूसरे अन्तरे में;

    उल्काओं की फुलझड़ियों से
    हर इक दिशा सजाता कोई।

    अन्तिम लाइन में;
    हर सन्ध्या दीप जलाती हूँ।

    आशा हैं शशि जी अन्यथा नहीं लेगीं।

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  3. aap ka likha geet sada hi sunder hota hai diwali pr aap ka ye geet bahut man bhavan hai
    badhai
    saader
    rachana

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  4. नवगीत भाव के स्तर पर बहुत ही सुन्दर है लेकिन जैसा कि सज्जन जी ने कहा प्रवाह में अवरोध है कहीं-कहीं। यदि इस पर भी ध्यान दिया जाता जो निश्चय ही यह एक उत्कृष्ट नवगीत होता।
    शशिपाधा जी को बधाई!

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  5. उदयाचल के शिखरों से मैं
    भोर नयी ले आती हूँ

    गीतकार को अच्छी भावाभिव्यक्ति हेतु साधुवाद..

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  6. naari man ki komal abhivakti..aaj isi tarah ke bhavoN ki jarurat hai jo vykti ko vyakti se jode aur asha ka saNchar kare

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  7. उदयाचल के शिखरों से मैं
    भोर नयी ले आती हूँ
    किरणों की लौ बिखराती हूँ

    Bahut hi sunder panktian ek achoote ahsaas ko jagati hui

    Devi nangrani

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  8. इस रचना पर अपने विचार देने के लिये मैं आप सभी की आभारी हूँ ।
    सज्जन जी, आपका सुझाव मान्य है। धन्यवाद। मुझे साँझ शब्द से मोह है अत:
    "हर साँझ मैं दीप जलाती हूँ " करने से भी प्रवाह में बाधा नहीं आएगी शायद। पूर्णिमा जी, अगर हो सके तो इतना सा बदल दें ।
    शुभकामनाओं सहित,
    शशि पाधा

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