एक बार कह लेते प्रियतम
घना कुहासा
धुँआ-धुँआ सा
छँट जाता
घुप्प आसमां
बँधा-बँधा सा
कट जाता
कोरों पे ठहरी दो बूँदे
बह जाती चुपके से अंतिम
एक बार कह लेते प्रियतम
कहीं नहीं पर
कहीं जो बातें
मूक आभास
दो प्राणों के
गुँथे हवा में
कुछ निश्वास
अधरों पर कुछ काँपते से स्वर
भी पा जाते मुक्ति चिरतम
एक बार कह लेते प्रियतम
मौन स्वीकृति
बंद पलकों में
शर्माती
नये स्वप्न के
तानेबाने
सुलझाती
आशाओं के इंद्रधनुष से
रंग-बिरंग हो सज जाता तम
एक बार कह लेते प्रियतम
--मानोशी
बहुत अच्छी लगी यह रचना।
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामना।
कोहरे ने छूने का दिया जब उपहार,
जवाब देंहटाएंमोतियों से सज गया वसुधा का आँचल!
कौन जाने किसने किसको किया प्यार,
गुदगुदी ने हँसा दिया अंबर का आनन!
धुँआ-धुँआ सा
जवाब देंहटाएंघना कुहासा
बँधा-बँधा सा
घुप्प आसमां
Beautiful!
अच्छा नव गीत.
जवाब देंहटाएंमानोषी जी,
जवाब देंहटाएं"घना कुहासा
धुँआ-धुँआ सा
छँट जाता
घुप्प आसमां
बँधा-बँधा सा
कट जाता
कोरों पे ठहरी दो बूँदे
बह जाती चुपके से अंतिम
एक बार कह लेते प्रियतम"
बहुत सुन्दर परिकल्पना , शब्द माधुर्य एवं कोमल भावों से ओतप्रोत है यह नवगीत । महादेवी जी का स्मरण हो आया। धन्यवाद तथा बधाई ।
शशि पाधा
वाह मानोशी जी, बहुत दिनों बाद दिखाई दीं और एक बढ़िया नवगीत के साथ। अब किसी कार्यशाला से आपकी अनुपस्थिति नहीं होनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है मानोशी। आप नवगीत की विधा में ढलने लगी हैं। अच्छे नवगीतकार का भविष्य आपकी रचनाओं में दिखने लगा है।
जवाब देंहटाएंएक बार कह लेते प्रियतम... बहुत सुंदर कल्पना...
जवाब देंहटाएंमानोशी जी...बढ़िया नवगीत के लिए बधाई..
दीपिका जोशी 'संध्या'