8 अगस्त 2010

१६ : कमल खिल जाय : उत्तम द्विवेदी

मेरा मन हुलसाय
ज्यों कमल खिल जाय

पटते जा रहे तालाब
तल आब रोज़ घट रहे
घट रहे नहिं डूबते अब
अब कैसे जनमें नीर
नीरज के सुघड़-सुघड़ फूल
फूल सा सावन बरस जाय

नदिया पानी नील हुआ
हुआ उसमें जहर मिला
मिले कैसे उज्जर कमल
कमल की यह जाति लोप
लोप संस्कृति आदि धरा की
धरा की जनता चेत जाय

धरती को पोषित दरखत
दर खत से हैं घट रहे
घट रही जीवन की आस
आस पर पानी न फिरे
फिरे नहिं मानव तन पर पंक
पंकज यदि फिर से खिल जाय
--
उत्तम द्विवेदी

4 टिप्‍पणियां:

  1. पर्यावरणीय चेतना जगाता नवगीत कथ्य में नवता का स्पर्श लिये है.

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  2. विमल कुमार हेड़ा।10 अगस्त 2010 को 8:29 am बजे

    मेरा मन हुलसाय
    ज्यों कमल खिल जाय
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, नवगीत के लिये उत्तमजी को बहुत बहुत बधाई।
    धन्यवाद।
    विमल कुमार हेड़ा।

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  3. उत्तम द्विवेदी11 अगस्त 2010 को 2:18 pm बजे

    अपनी प्रतिक्रिया देने तथा नवगीत की प्रशंसा करने के लिए आचार्य जी एवं विमल जी को बहुत-बहुत धन्यवाद !

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  4. नदिया पानी नील हुआ
    हुआ उसमें जहर मिला
    मिले कैसे उज्जर कमल
    कमल की यह जाति लोप
    लोप संस्कृति आदि धरा की
    धरा की जनता चेत जाय
    कमल की दुर्दशा उससे हो रही पर्यावरणीय हानि को दर्शाने वाले तथा स्ुंादर लय व ताल में रचित इस नवगीत व उसके रचनाकार को हार्दिक बधाई।

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