चौमासे में आसमान में
घिर-घिर बादल आए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
उनके लिए सुखद चौमासा
पास बसे जिनके प्रियतम
कुण्ठित हैं उनकी अभिलाषा
दूर बसे जिनके साजन
वैरिन बदली खारे जल को
नयनों से बरसाए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
पुरवा की जब पड़ीं फुहारें
ताप धरा का बहुत बढ़ा
मस्त हवाओं के आने से
मन का पारा बहुत चढ़ा
नील-गगन के इन्द्रधनुष भी
मन को नहीं सुहाए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
जिनके घर पक्के-पक्के हैं
बारिश उनका ताप हरे
जिनके घर कच्चे-कच्चे हैं
उनके आँगन पंक भरे
कंगाली में आटा गीला
हर-पल भूख सताए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
--
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा,
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308
बहुत सुन्दर गीत ...
जवाब देंहटाएं* अच्छी कविता !
जवाब देंहटाएंएक बार फिर सुन्दर नवगीत की रचना के लिए मयंक जी को बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी की यह रचना विरहिन के दर्द से चलकर जिस तरह झोपड़ियों के दर्द तक पहुंची, वह अच्छा लगा. जब भूख हो, तब फूल, गन्ध और वारिश कोई भी सुहाता नहीं. आज भूख ही सबसे बड़ी समस्या है. गरीबी है तो भूख है, असमानता है तो गरीबी है. ऐसे में जोर की बारिश आनन्द देने वाली नहीं दुख देने वाली ही साबित होगी.
जवाब देंहटाएंबारिश के मौसम में विरह और मिलन दोनो के सटीक रेखांकन करने वाले अपने चहेते रचनाकार को हम बार बार उन्ही की पंक्तियों को दुहराते हुए प्रणाम करते हैं
जवाब देंहटाएंउनके लिए सुखद चौमासा
पास बसे जिनके प्रियतम
कुण्ठित हैं उनकी अभिलाषा
दूर बसे जिनके साजन
वैरिन बदली खारे जल को
नयनों से बरसाए रे
श्याम-घटाएँ विरहनिया के
मन में आग लगाए रे
बहुत सुन्दर रचना। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति. हर पंक्ति सच-दर्पण में जीवन का बिम्ब प्रतिबिंबित करती हुई... साधुवाद...
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