अँधेरों में भी
चलती है, उजालों में मचलती है
सड़क पर जि़ंदगी फिर क्यों
हवाओं में उछलती है
कभी गुमनाम
होती है कभी हमनाम होती है
कभी इंसान की खातिर
महज बदनाम होती है
उठाकर चार
कांधों पर तेरी मैयत निकलती है
सड़क पर आदमी
कुछ तो, सड़क पर बेबसी कुछ तो
निवालों की जगह मिट्टी,
सड़क पर बेरूखी कुछ तो
कई तस्वीर हैं
इसकी जो गिरती है, संभलती है।
समंदर की
निगाहों में, महज पानी समाया था
मगर सूखी नदी को तो
वो सूखा ठूंट भाया था
उदासी के
घरौंदों में तो बस आशi ही पलती है
-महेश सोनी, भोपाल
सुंदर रचना के लिए साधुवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक नवगीत ...जैसे सड़क का दृश्य ही सामने आ गया हो
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन से पूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंसमंदर की
जवाब देंहटाएंनिगाहों में, महज पानी समाया था
मगर सूखी नदी को तो
वो सूखा ठूंट भाया था
उदासी के
घरौंदों में तो बस आशा ही पलती है
आहा...
सुंदर रचना के लियें महेश जी आपका
आभार
gahre bhav uttam soch
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
बहुत सुंदर रचना प्रभुदयाल श्रीवास्तव
जवाब देंहटाएंअँधेरों में भी चलती है, उजालों में मचलती है
जवाब देंहटाएंसड़क पर जिंदगी फिर क्यों हवाओं में उछलती है...........
बहुत खूब महेश जी, बधाई|
कभी गुमनाम
जवाब देंहटाएंहोती है कभी हमनाम होती है
कभी इंसान की खातिर
महज बदनाम होती है
उठाकर चार
कांधों पर तेरी मैयत निकलती है
सारगर्भित गीति रचना. बधाई सार्थक श्री गणेश हेतु.