27 फ़रवरी 2011

१. होली का हुड़दंग

खेल रहे सब ही जन मिल के
खोजत नव-नित रंग
ओ भैया होली का हुड़दंग

गरिमा के 'गुलाल' को भूले
गाली गूँजें सदनों में
अदब 'अबीर' लुप्त दिखता,नहिं
भेद बड़ों में अदनों में
केमीकल का असर हुआ ये
कान्ति दिखे ना वदनों में
तन देखो या मन देखो
सब के सब हैं बदरंग
ओ भैया होली का हुड़दंग

अब की होली कुछ ऐसे हम
खेलें तो फिर आए मजा
'गुण' गुलाल चेहरों पे मल के
नाचें 'ढ़ंग' के ढ़ोल बजा
'मनुहारों' की बंटे मिठाई
'सत्कारों' के साज सजा
गर ऐसा हो जाए तो
मन होवे मस्त मलंग
ओ भैया होली का हुड़दंग

--नवीनचंद्र चतुर्वेदी

14 टिप्‍पणियां:

  1. मस्ती भरे नवगीत के लिए बहुत बहुत बधाई नवीन भाई।

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  2. theek baat uthai hai aapne navgeet ke rum me .aap ko hadhai
    saader
    rachana

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  3. नवीन जी, बढ़िया रचना है।
    आपने 16-14 मात्रा का छंद बनाया है और अंतिम में 11 मात्राएँ रखी हैं। "ओ भैया होली का हुड़दंग" वाली लंबी पंक्ति इसे दमदारी से भरती हैं। एकदम चमत्कारपूर्ण योजना है और लोक गीत जैसा चित्र उपस्थित करती है। लेकिन छंद का निर्वाह नहीं हो पाया है, यह जगह जगह लड़खड़ाता है। इसका विधिवत पालन होना चाहिये वर्ना इसे लोग नवगीत की बजाय तुकबंदी कहने लगेंगे। स्थायी में जिस प्रकार शुरू किया गया उसके आधार पर पहला अंतरा इस प्रकार होना था-

    गरिमा के गुलाल को भूले
    गाली गूँजे सदनों में
    अदब अबीर लुप्त दिखता है
    नहीं भेद बड़-अदनों में
    केमीकल का असर हुआ ये
    कांति दिखे ना वदनों में
    सब के सब बदरंग
    ओ भैया...
    इसी प्रकार दूसरा अंतरा भी ठीक किया जाना चाहिये। यह भी ध्यान रखने की बात है कि पहले अंतरे में और स्थायी की पहली पंक्ति में आपने अंत में दो गुरू रखे हैं। दूसरे छंद की- "तो फिर आए मजा" और "नाचें ढँग के ढोल बजा" में यह नियम टूट गया है इसलिये लय भी टूट गई है। ऐसे करना गलत तो नहीं है पर संभालना मुश्किल है। फिर भी कोशिश कर सकते हैं इस प्रकार देखें-
    अबकी होली ऐसे खेलें
    सबके मन में मचे मजा
    गुण गुलाल चहरों पर मलके
    नाचें ढँग के ढोल बजा
    मनुहारों की बँटे मिठाई
    सत्कारों के साज सजा
    गर ऐसा हो जाए तो फिर-
    मन हो मस्त मलंग
    ओ भैया...
    आशा है कोई सदस्य इसे अन्यथा न लेंगे और अपनी अपनी रचनाओं में इन बातों का ध्यान रखेंगे।

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  4. बढ़िया नवगीत है नवीन भाई, मुक्ता जी की बातों पर भी ध्यान दीजियेगा।

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  5. राज भाटिया जी, जयक्रुष्ण तुषार जी, धर्मेन्द्र भाई, रचना जी आप सभी का सराहना के लिए आभार|

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  6. आदरणीया मुक्ता जी और पूर्णिमा जी, आप का अनुभव और ज्ञान हमारे साथ बाँटने के लिए आभार| सिर्फ़ अपना पक्ष रख रहा हूँ|

    मुखड़ा लिया है इस तरह १६+११ मात्रा
    खेल रहे सब ही जन मिल के१६ मात्रा
    खोजत नवनित रंग११ अंत में गुरु लघु

    टीप 'ओ भैया' ली है १६ मात्रा

    अंतरा:-
    १६+१४
    गरिमा के गुलाल को भूले१६
    गाली गूँजें सदनों में१४ अंत में गुरु गुरु
    अदब अबीर लुप्त दिखता, नहिँ-१६
    भेद बडों में अदनों में१४ अंत में गुरु गुरु
    केमीकल का असर हुआ ये १६
    कांति दिखे ना वदनों में१४ अंत में गुरु गुरु

    उड़ान:-
    तन देखो या मन देखो १४ मात्रा

    मिलान:-
    सब के सब हैं बदरंग १३ मात्रा अंत में गुरु लघु

    लौट / टीप :-
    ओ भैया होली का हुड़दंग १६ मात्रा

    दूसरा अंतरा:- १६+१४ मात्रा

    अब की होली कुछ ऐसे हम-१६
    खेलें, तो फिर आय मज़ा१४ अंत में लघु गुरु
    गुण गुलाल चेहरों पे मल के१६
    नाचें ढँग के ढोल बजा१४अंत में लघु गुरु
    मनुहारों की बँटे मिठाई१६
    सत्कारों के साज़ सज़ा१४अंत में लघु गुरु

    उड़ान:-
    यदि ऐसा हो जाए तो १४ मात्रा

    मिलान:-
    मन होवे मस्त मलंग १३ मात्रा अंत में गुरु लघु

    लौट / टीप :-
    ओ भैया होली का हुड़दंग १६ मात्रा

    आप लोगों की सलाह का सम्मान करता हूँ मैं| मुझे लगता है कि नवगीत अपने आप में एक स्वतंत्र छंद है और इस का शिल्प गीतकार अपने मुताबिक गढ़ता है| आपके द्वारा सुझाए गये परिवर्तनों [तीनों जगह १. नहिँ भेद २. अब की होली ३. यदि ऐसा] पर मैने ध्यान दिया है और आप से विनम्र निवेदन है कि आप भी एक बार फिर से शिल्प में गढ़े गये शब्दों पर गौर कर के देखने की कृपा करें|

    इस पाठ शाला में समीक्षा की यह शुरुआत स्वागत योग्य है तथा ह्म सभी को इसे स्पष्टीकरणों के साथ सकारात्मक रूप में लेना चाहिए| ताकि नये गीतकारों को राह पकड़ने में दिक्कत न आए|

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  7. नवीन जी, आपकी टिप्पणी ध्यान से देखी आपकी बात अपनी जगह बिलकुल सही है। आपके नवगीत को प्रकाशित करने में कुछ शब्द ऊपर नीचे हुए हैं वे ठीक कर देती हूँ। मुक्ता जी की बात अपनी जगह सही है क्यों कि अगर निर्धारित मात्राओं के बाद विराम (यति) तक बात पूरी होती जाती है तो उसका अपना सौंदर्य है और बात अधिक स्पष्ट रहती है। यों विराम को खिसका कर सौंदर्य पैदा करने की परंपरा भी है। आपने इतने सम्मान के साथ अपनी बात को स्पष्ट किया इसके लिये आपका सादर अभिनंदन करती हूँ। यह स्वस्थ परंपरा जारी रहे यही मंगल कामना है। शायद मुक्ता जी भी इस विषय में कुछ कहना चाहेंगी।
    --पूर्णिमा वर्मन

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  8. नवीन जी, आपकी बात समझ में आई। बाद में मुझे लगा कि मैंने कड़े शब्दों का प्रयोग किया। बात को विनम्रता से कहा जा सकता था। क्षमाप्रार्थी हूँ। इस ब्लाग पर आना इसलिये पसंद है कि यहाँ गीत पर अच्छा विमर्श देखने को मिलता है। आशा है यह जारी रहेगा।

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  9. जी मुक्ता जी, अवश्य, मैं भी आपके ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित होने की कामना रखना हूँ| स्पष्टीकरण देते हुए यदि मुझसे कोई त्रुटि हुई हो तो मैं भी क्षमा प्रार्थी हूँ|

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  10. नवीन जी, आप भी लगता है पाठशाला में पहली बार आए हैं... पर आए हैं धमाके के साथ, ओ भैया...
    मुक्ता जी तो आपसे डर गयीं लेकिन खोजत नित नव रंग की तरह सभी अंतरों की अंतिम पंक्तियाँ 11 मात्राओं की होतीं रंग तो तभी जमता। एक बार फिर से सोचने में कोई बुराई नहीं... अनेक शुभ कामनाएँ...

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  11. सुरुचि जी नमस्कार

    आपकी भी प्रोफाइल उपलब्ध नहीं है| मैं शायद आप से पहली बार मुखातिब हो रहा हूँ| अनुभूति और नवगीत की पाठशाला पर शायद आप को पहले नहीं ढूँढ पाया मैं|

    आपकी सलाह सर माथे पर| यहाँ हार जीत की बात नहीं है| ये कोई अखाड़ा नहीं है सुरुचि जी| आप की प्रोफाइल उपलब्ध कराईएगा ताकि मेरे जैसे कई लोग आपके ज्ञान और अनुभव का लाभ उठा सकें|
    मेरे ब्लॉग्स पर आप का स्वागत है|

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  12. नवीनजी के इस गीत पर विद्वजनो के परामर्श बेशक अनुकरणीय है । पर मेरा विनम्र हस्तक्षेप है कि मात्रा के लगभग निर्वाह के साथ भावो के प्रवाह पर ज्यादा जोर होना चाहिए । यही पाठ पाठशला के प्रारंभ में भी पढ़ाया गया है। विनीत
    शंभु शरण मंडल, धनबाद।
    mamdalss@gmail.com
    manda_ss@yahoo.com

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