प्रथम मिलन के साथ
मिला था,
हँसता हुआ पलाश
रूप रंग खिल उठे
दिखा जब
खिलता हुआ पलाश
तुम भेटी
ज्यों नवल वल्लरी
मैं बिरवा था वन का
छुअन अधर की
मिलन हुआ था
तपित देह का मन का
खिले फूल
मुसकाया उपवन
दर्शक बना पलाश
गंधाई थी
मदन मालती
हुए सिंदूरी गाल
अंग अंग सिमटे लाजों से
झरते रहे गुलाल
होली गाता रंग लुटाता
नर्तक लगा पलाश
फागुन आया
वासंती का
लेकर नव संदेश
भौंरों ने सुलझाए उलझे
कचनारों के केश
हमें बहकता देख रहा था
तट पर खड़ा पलाश
-श्याम बिहारी सक्सेना
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जवाब देंहटाएंकवि की कल्पना वास्तव में अनोखी होती है!
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ऐसी ख़ुशी मिली मुझको!
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सुन्दर गीत ...व भावाव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंरथम मिलन के साथ
मिला था,
हँसता हुआ पलाश
रूप रंग खिल उठे
दिखा जब
खिलता हुआ पलाश----मूल पंक्तियों व अंतिम में कुछ अर्थवत्तात्मक भ्रम का भाव लगता है...पलाश मिला था...क्या नायिका से अधिक पलास की महत्ता .और प्पलास देखने के बाद रूप रंग खिल उठा वैसे नायिका का रूप रंग खिला हुआ नहीं था......या यदि स्वय नायिका को हंसता हुआ पलास कहा जारहा है.... तो वास्तव में अति सुन्दर अन्योक्ति है...परन्तु अंतिम पंक्ति में ..पलास वास्तव में पलास का बृक्ष व पुष्पों का रूप है...
सुंदर रचना है। श्याम बिहारी जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण ...बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह...वाह... बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंगंधाई थी
मदन मालती
हुए सिंदूरी गाल
अंग अंग सिमटे लाजों से
झरते रहे गुलाल
होली गाता रंग लुटाता
नर्तक लगा पलाश
क्या बात है...