23 जून 2011

२०. फूल ये पलाश के

लाए हैं पुन: दिवस आस के, विश्वास के
फूल ये पलाश के

सज गया धरा का धरातल विशेष तौर पर
अलि-पिक के मधुर स्वर आज आम्रबौर पर
लताएँ सब लिपट गई हैं,
सन्निकट स्वगाछ से

पीतपत्र झड. गए, छा गए नवल-नवल
स्वच्छ जल के दर्पणों में,रूप देखते कमल
कुमुदिनी के रात-दिन,
हो गए सुहास के

पर्णहीन सेमलों में फूल-फूल रह गए
फूल भी तो शीघ्र ही एक-एक झड़ गए
पल्लवित-फलित हुए,
देख दिन विनाश के

दिक्-दिगन्त में छटा है छा गई वसन्त की
बांधती स्वपाश में हैं,टोलियाँ अनंग की
देखो,दिन ये चार ही हैं,
मधुर मधुरमास के

-राममूर्ति सिंह 'अधीर'

7 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रकृति वर्णन....पर इस वक्त तो वर्षा ऋतु है...बसंत का समय कहाँ है...

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  2. वाह ...बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों का संगम है इस रचना में ।

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  3. बहुत सुंदर नवगीत है। राममूर्ति जी को बधाई।

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  4. लाए हैं पुन: दिवस आस के, विश्वास के,फूल ये पलाश के। पुरानी स्मृतियों से जोड़ने वाला यह नवगीत अच्छा लगा।

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  5. पर्णहीन सेमलों में फूल-फूल रह गए
    फूल भी तो शीघ्र ही एक-एक झड़ गए
    पल्लवित-फलित हुए,
    देख दिन विनाश के
    सुंदर अभिव्यक्ति प्रभावी गीत
    रचना

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  6. अधीर जी ! बहुत सुन्दर नवगीत के लिए हार्दिक वधाई।

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