26 अगस्त 2011

१३. देखता हूँ इस शहर को

रोज़ जीते, रोज़ मरते
उम्र यों ही कट रही है
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते!

फिर कपोतों की उमीदें
आँधियों में फँस गई है
बया की साँसे कहीं पर
फुनगियों में कस गई है

यहाँ तोते बाज से मिल
पंछियों के पर कतरते!

कंपकपांते होठ नाहक
थरथराती देह है
और कुर्ते पर चढ़ा बस
इस्तरी-सा नेह है

पूछिए मत हाल बस
हर हाल में सजते-सँवरते!

लूटकर लाए पतंगे
लग्गियों से जो यहाँ
कैद उनकी मुट्ठियों में
आजकल दोनों जहाँ

कुछ धुआँते पेड़
उन पगडंडियों की याद करते!

-भारतेंदु मिश्र
(दिल्ली)

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर नवगीत है भारतेन्दु जी का, महानगरीय जीवन की वास्तविकता को पूरी तरह से नवगीत में प्रस्तुत किया गया है।

    " रोज़ जीते, रोज़ मरते
    उम्र यों ही कट रही है
    सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते !

    फिर कपोतों की उमीदें
    आँधियों में फँस गई है
    बया की साँसे कहीं पर
    फुनगियों में कस गई है "

    इस बहुत सुन्दर नवगीत के लिये हार्दिक वधाई।

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  2. लूटकर लाए पतंगे
    लग्गियों से जो यहाँ
    कैद उनकी मुट्ठियों में
    आजकल दोनों जहाँ

    कुछ धुआँते पेड़
    उन पगडंडियों की याद करते!

    भाई भारतेंदु मिश्र का यह नवगीत फ़िलवक्त को बड़े ही सशक्त रूप में व्याख्यायित करता है| निश्चित ही यह पाठशाला की उपलब्धि-रचना है| साधुवाद भारतेंदु जी को और बधाई 'नवगीत पाठशाला' को नवगीत-प्रसंग को सार्थक बनाने के लिए|
    कुमार रवीन्द्र

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  3. इस सुंदर नवगीत के लिए भारतेन्दु जी को हार्दिक बधाई।

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  4. लूटकर लाए पतंगे
    लग्गियों से जो यहाँ
    कैद उनकी मुट्ठियों में
    आजकल दोनों जहाँ

    बेहतरीन नवगीत के लिए बधाई

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  5. कंपकपांते होठ नाहक
    थरथराती देह है
    और कुर्ते पर चढ़ा बस
    इस्तरी-सा नेह है

    पूछिए मत हाल बस
    हर हाल में सजते-सँवरते


    ..... सुंदर सशक्त नवगीत के लियें
    भारतेंदु जी को बधाई...

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  6. यहाँ तोते बाज से मिल
    पंछियों के पर कतरते!

    इस अद्भुत अभिव्यक्ति को सलाम....
    सादर...

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