महानगर के बाज़ारों में
गिरह काटती धूसर संध्या।
स्वेद-सिक्त धकियाते चेहरे
रुद्ध राह है, पग पथराए
रक्त-जात संबंधों को भी
रहे बाँट गूँगे चौराहे
यहाँ रोज़ ईमान ख़रीदे
बेच झील पेशेवर संध्या।
दिशा-हीन अंधी भीड़ों में
रहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बनजारों-सा
गया छूट पीछे वह मेला
सूख गीत के अंकुर जाते
भूमि नागरी ऊसर वंध्या।
बनी बेड़ियाँ हैं अनदेखी
वर्ण-गंध की मधु छलनाएँ
लिए वंचना का बोझा हम
कहाँ-कहाँ की ठोकर खाएँ
विहग फाँस कर विश्वासों के
पंख कतरती निष्ठुर संध्या।
-राजेन्द्र गौतम
(दिल्ली)
बहुत सुंदर नवगीत है ये राजेन्द्र गौतम जी का उन्हें बहुत बहुत बधाई इस नवगीत के लिए।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना.. बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंभाई राजेन्द्र गौतम के इस गीत में महानगर की धूसरित सांझ की विभिन्न आकृतियाँ जीवंत होकर उपस्थित हुई हैं| पहले दो पद तो अद्भुत बन पड़े हैं| गौतमजी को मेरा हार्दिक साधुवाद इतने सशक्त नवगीत के हेतु| पाठशाला के नवांकुरों के लिए यह रचना अपने-आप में एक पूरी पाठशाला है|
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति.......
जवाब देंहटाएंविहग फाँस कर विश्वासों के
जवाब देंहटाएंपंख कतरती निष्ठुर संध्या।
वाह..
बहुत सुंदर नवगीत..
बधाई आपको
और आभार...
दिशा-हीन अंधी भीड़ों में
जवाब देंहटाएंरहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बनजारों-सा
गया छूट पीछे वह मेला
बहुत सुंदर नवगीत बधाई आपको
और आभार...