27 अगस्त 2011

१४. शहरों की मारामारी में

शहरों की मारामारी में
सारे मोल गए

सत्य अहिंसा दया धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे औ’ वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर थे कम
जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गए

सड़कें गाड़ी महल अटारी
सभी झूठ से फाँसे
तिकड़म लील गई सब खुशियाँ
भीतर रहे उदासे
बेगाने दिल की
क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गए

-पूर्णिमा वर्मन
(शारजाह)

7 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णिमा जी,
    आपका यह गीत बहुत ही अच्छा बन पड़ा है| कुछ पंक्तियाँ तो,
    यथा,
    'शहरों की मारामारी में
    सारे मोल गए
    ... ... ...
    'जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
    घुटने बोल गए'
    ... ... ...
    'सड़कें गाड़ी महल अटारी
    सभी झूठ से फाँसे
    तिकड़म लील गई सब खुशियाँ
    भीतर रहे उदासे'
    एकदम नई कहन की हैं|

    मेरा हार्दिक साधुवाद स्वीकारें इस श्रेष्ठ नवगीत के लिए|

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  2. भीड़ बहुत थी
    अवसर थे कम
    जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
    घुटने बोल गए

    bahut khub

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  3. अवसरवादी लोग तो आजकल पग पग पर फैले हुये हैं। किसी भी अवसर को अपने स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाना इन्हें भलीभाँति आता है, इस तथ्य की बहुत सार्थक प्रस्तुति के लिये पूर्णिमा जी को वधाई-

    सत्य अहिंसा दया धर्म
    अवसरवादों ने लूटे
    सरकारी दावे औ’ वादे
    सारे निकले झूठे

    इन पंक्तियों में तो वह सब कुछ कह दिया है नवगीतकार ने जो महानगरों में संघर्ष करते रहे हैं_

    भीड़ बहुत थी
    अवसर थे कम
    जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
    घुटने बोल गए

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  4. बहुत ही खूबसूरत नवगीत है ये पूर्णिमा जी का। इसके लिए उन्हें हार्दिक बधाई।
    जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
    घुटने बोल गए
    ये पंक्तियाँ अति विशिष्ट लगीं

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  5. लाजवाब। कारण भी यहीं हैं और असर भी। शहर की सच्चाई भी यहीं है।

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  6. बेगाने दिल की
    क्या जानें
    अपनों से भी मन की पीड़ा
    टालमटोल गए
    ..........पीड़ा का आवेग...कुहनियों ने विशेष रूप से आकर्षित किया ..

    सुंदर नवगीत के लियें पूर्णिमा दी ,
    आपको बधाई...

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  7. इन पंक्तियों ने मन मोह लिया-
    "भीड़ बहुत थी
    अवसर थे कम
    जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
    घुटने बोल गए"

    इस सुन्दर नवगीत हेतु मेरी बधाई स्वीकारें

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