ढो रहा है
संस्कृति की लाश
शहर का एकांत
बहुत दुनियादार है यह
बचो इससे
दलाली व्यापार है
सच कहो किससे
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की हैं-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से
खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत
शहर का एकांत
नहीं कौनौ है
हियाँ अपना
बिना जड़ का रूख
हर सपना
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना
हो रहा है
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत
-संजीव सलिल
(जबलपुर)
खड़ी बोली के साथ आंचलिक शब्दों से सुसाज्जित अभिवयक्ति इस नवगीत को अलग श्रेणी में ला खड़ा कर रही है
जवाब देंहटाएंनहीं कौनौ है
जवाब देंहटाएंहियाँ अपना
बिना जड़ का रूख
हर सपना
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना
नवगीत की कहन का यह सहज लोकांचली स्वरूप ही उसे फ़िलवक्त की कविता बनाता है|
साधुवाद भाई संजीव सलिल को इस श्रेष्ठ नवगीत के लिए|
ढो रहा है
जवाब देंहटाएंसंस्कृति की लाश
शहर का एकांत
यहाँ पर-
" संस्कृति की लाश "
का आशय है कि शहर में संस्कृति मर चुकी है तभी तो "संस्कृति की लाश" जैसी शब्दावली का प्रयोग किया गया है ....... पर भाई मेरे संस्कृति कभी मरती नहीं है, बदलती भी बहुत कम है बदलती है तो सभ्यता बदलती है संस्कृति नहीं। फिर मरने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यदि संस्कृति मर जायेगी तो फिर बचेगा ही क्या ? संस्कृति हमारी रग रग में रची बसी है...... चाहे शहर में रहें या गाँव में संस्कृति हमेशा बची रहती है।
अच्छा नवगीत है परन्तु शुरुआत की ये पंक्तियाँ बदलाव चाहती हैं..... नवगीत में असत्य भी नहीं होना चाहिये। डा० सम्पूर्णानन्द का लेख संस्कृति और सभ्यता पढ़ लीजिये फिर आपका सारा भ्रम दूर हो जायेगा।
इस श्रेष्ठ नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंनहीं कौनौ है
जवाब देंहटाएंहियाँ अपना
बिना जड़ का रूख
हर सपना
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना
...............आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने विशेष रूप से मनमोहक है...सुंदर नवगीत के लियें आपको बधाई...नमन...
अपसंस्कृति में जीने के विवश मनुष्य क्या संस्कृति का मरण ही नहीं देख रहा है? संस्कृति के नाम पर हम उसकी निष्प्राण देह ही ढो रहे हैं. सभ्यता और संस्कृति का तात्विक विवेचन यहाँ अभीष्ट नहीं है. आप को उपयुक्त लगे तो संस्कृति के स्थान पर सभ्यता पढ़ लें, मुझे जो प्रतीति हुई वह प्रस्तुत कर दी.
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