6 सितंबर 2011

२५. यह शहर

ति‍नका ति‍नका जोड़ रहा
इंसाँ यहाँ शाम-सहर
आतंकी साये में पीता
हालाहल यह शहर

अनजानी सुख की चाहत
संवेदनहीन ज़मीर
इन्द्रहधनुषी अभि‍लाषायें
बि‍न प्रत्यंचा बि‍न तीर
महानगर के चक्रव्यू्ह में
अभि‍मन्यू सा वीर
आँखों की कि‍रकि‍री बने
अपना ही कोई सगीर
क़दम क़दम संघर्ष जि‍जीवि‍षा का
दंगल यह शहर

ढूँढ़ रहा है वो कोना जहाँ
कुछ तो हो एकांत
है उधेड़बुन में हर कोई
पग-पग पर है अशांत
सड़क और फुटपाथ सदा
सहते अति‍क्रम का बोझ
बि‍जली के तारों के झूले
करते तांडव रोज
संजाल बना जंजाल नगर का
कोलाहल यह शहर

दि‍नकर ने चेहरे की रौनक
दौड़धूप ने अपनापन
लूटा है सबने मि‍लकर
मि‍ट्टी के माधो का धन
पर्णकुटी से गगनचुंबी का
अथक यात्रा सम्मोहन
पाँच सि‍तारा चकाचौंध ने
झौंक दि‍या सब मय धड़कन
हृदयहीन एकाकी का है
राजमहल यह शहर

-आकुल

1 टिप्पणी:

  1. आकुल जी की रचना पर डॉ. व्योम की प्रतिक्रिया-

    रचनाकार के पास रचना लिखने की सोच है, परंतु नवगीत के अनुरूप प्रस्तुत करना जरूरी है। उदाहरण के लिये इसे यदि इसे निम्नलिखित प्रकार लिखा जा सके तो यह नवगीत हो सकेगा। यह नवगीत की पाठशाला है इसलिये किसी सुझाव को अन्यथा न लें। रचना का एक अंतरा डॉ. व्योम ने लिखा है... यदि रोचक लगे तो इसे पूरा कर के भेजें।

    सड़कों पर हो रहा अतिक्रमण
    कैसे बात बने ।

    अनजाने सुख की खातिर
    दिन रात दौड़ते लोग
    तन मन में लग जाते हैं
    जाने कब कितने रोग
    अन्दर से टूटे टूटे, पर
    बाहर तने तने
    कैसे बात बने ।

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