7 सितंबर 2011

२६. झुंड में हैं पंछी अकेला

झुंड में है पंछी अकेला नगर में
हसरतें लिए आया है शहर में
झुंड में है पंछी अकेला इस नगर में।

बाँस सी लम्बी घनी
है उम्मीद की कोठी
यादें सुपेली सी छूटीं
पल-पल नये करील सी
हैं आशाएँ फूटीं
हर पोर आजमाना अपनी नजर में। झुंड में॰॰॰

भीड़ से घिरा है जन
लगे उसे फिर भी विजन
हर भावना का भाव यहाँ
जूतों की तल्लियों से
घिस गये रिस्ते यहाँ
पथरीली काया बनते जन शहर में।झुंड में॰॰॰

स्मृति घनी नभ छाया;
क्षितिज तक पंख फैलाया
दर्द बदली में छिपाया
न कहीं पर नींड़ पाया
लौट फिर विहग आया
हाथ अपने ही हैं छोड़ते डगर में। झुंड में॰॰॰

-उत्तम द्विवेदी

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तम द्विवेदी के गीत पर डॉ. व्योम की प्रतिक्रिया-
    उत्तम द्विवेदी ने नवगीत के अनुरूप बहुत ही सुन्दर भाषा और शब्दावली का चयन किया है। मुझे लगता है कि उत्तम द्विवेदी यदि थोड़ा सा ध्यान नवगीत के कलेवर पर दें तो वे अति शीघ्र बहुत सुन्दर नवगीत का सृजन कर सकते हैं। उदाहरण के लिये --

    झुंड में पंछी अकेला
    व्यर्थ का मेला ।

    बाँस -सी लम्बी घनी
    उम्मीद की कोठी
    पैर हैं लम्बे, मगर
    चादर बहुत छौटी

    भीड़ में घिर कर यहाँ
    क्या क्या नहीं झेला ।
    झुंड में पंछी अकेला
    व्यर्थ का मेला ।

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  2. उत्तम द्विवेदी7 सितंबर 2011 को 6:01 pm बजे

    रचना को पाठशाला में प्रस्तुत करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. डॉ. व्योम जी की प्रतिक्रिया शिक्षाप्रद व उत्साह वर्धक है. आप के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए आशा है कि आगे की कार्यशालाओं में अच्छा नवगीत प्रस्तुत कर सकूँगा. सधन्यवाद!

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