
बरसों पहले आई जब मैं
सात समंदर पार
गठरी बाँध के लाई थी संग
सारे तीज – त्यौहार
कभी मैं खोलूँ एक गाँठ मैं
द्वारे दीप सजाऊँ
इक खोलूँ मैं पुड़िया रंग की
मंगल कलश रंगाऊँ
बड़े जतन से जोड़ा मैंने
देसी घर – संसार
कभी मैं खोलूँ दूजी गठरी
ओढूँ लाल चुनरिया
झिलमिल बिंदिया माथे सोहे
पाँव सजे पायलिया
भेंट करें परदेसी नाते
रीझ – रीझ उपहार
कभी तो पागल मनवा ढूँढे
बचपन की वो गलियाँ
याद करूँ सखियाँ –हमजोली
भर - भर आवें अँखियाँ
आँचल में बाँधा है अब तक
माँ – बाबुल का प्यार
-शशि पाधा
(कनेक्टीकट, यू.एस.ए.)
दिल को छू लेने वाले इस नवगीत के लिए ढेरों बधाईयां. सच में तीज त्यौहार तो घर पर ही होते है..घर से दूर आप परदेश में हो या अपने देश में अपनों से दूर..त्योहारों पर मन उड़कर घरवालों के पास पहुँचाने को आतुर हो जाता है..और यदि आप त्योहारों पर अपनो के पास ना पहुँच पायें, तो हर उत्सव फीका ही होता है.
जवाब देंहटाएंशशि जी बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना। नवगीत के पैमाने पर यह कितनी खरी उतरती है यह तो मैं नहीं जानती लेकिन पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सामर्थ्य रखती है।
जवाब देंहटाएंआँचल में बाँधा है अब तक
जवाब देंहटाएंमाँ – बाबुल का प्यार
शशि जी!
मार्मिक शब्द चित्र... मन तक पहुँचने में सक्षम.
बरसों पहले आई जब मैं
जवाब देंहटाएंसात समंदर पार
गठरी बाँध के लाई थी संग
सारे तीज – त्यौहार
कभी मैं खोलूँ एक गाँठ मैं
द्वारे दीप सजाऊँ
इक खोलूँ मैं पुड़िया रंग की
मंगल कलश रंगाऊँ
बड़े जतन से जोड़ा मैंने
देसी घर – संसार
बहुत ही भावुक रचना के लिये शशि जी को बहुत बहुत बधाई,
धन्यवाद।
विमल कुमार हेड़ा ।
कभी मैं खोलूँ एक गाँठ मैं
जवाब देंहटाएंद्वारे दीप सजाऊँ
इक खोलूँ मैं पुड़िया रंग की
मंगल कलश रंगाऊँ
बड़े जतन से जोड़ा मैंने
देसी घर – संसार bahut sunder abhivykti Prabhudayal
बहुत सुंदर नवगीत है शशि पाधा जी का। प्रवासी व्यथा की सुंदर अभिव्यक्ति की है उन्होंने। उनको बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंmanohari abhivyakti shashi ji | anekanek badhaayiyan.
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