दिन खनकता है
सुबह से शाम कंगन-सा।
खुल रहा मौसम
हवा में गुनगुनाहट और नरमी
धूप हल्के पॉंव करती
खिड़कियों पर चहलकदमी
खुशबुओं-सी याद
ऑंखों में उतरती है
तन महकता है
सुबह से शाम चंदन-सा।
मुँह अँधेरे छोड़ कर
अपने बसेरे
अब यहॉं तब वहॉं चिड़ियॉं
टहलती हैं दीठ फेरे
तितलियों-से क्षण
पकड़ में पर नहीं आते
मन फुदकता है
सुबह से शाम खंजन-सा।
चुस्कियों में चाय-सा
दिन भी गया है बँट
दोपहर के बाद होती
खतों की आहट
रंग मौसम के सुहाने
लौट आए हैं
लौटता अहसास फिर-फिर
शोख बचपन-सा।
दिन खनकता है
सुबह से शाम कंगन-सा।
-ओम निश्चल
(वाराणसी)
लौटता अहसास फिर-फिर
जवाब देंहटाएंशोख बचपन-सा।
दिन खनकता है
सुबह से शाम कंगन-सा।
सटीक बिम्ब चित्रित करते शिल्प के लिए सराहना.
बहुत ही सुंदर शब्द चित्र खींचे हैं ओम जी ने उन्हें बहुत बहुत बधाई
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