13 अक्तूबर 2011

१६. नए अन्न की खुशबू

पूछो नहीं
कि क्या उत्सव का मौसम ले आया
गंगा जमुना की यादों का
संगम ले आया

मिला दशहरा
दीवाली की उजली साँसों से
धरती खुल कर बतियाती
अपने आकाशों से
कौंधा कोई छ्न्द,
ताल, स्वर, सरगम ले आया

नए अन्न की
खुशबू आई, जागी नई रसोई
नई बहू ने चाँद सरीखी
निर्मल रोटी पोई
नया नया सपना
सहेज कर बालम ले आया

किरन छुई
सूरज की गहरी नींद नदी की टूटी
लहर लहर में लगी चमकने
शुभ दिन सजी अँगूठी
भूला सा प्रसंग आखों में
शबनम ले आया

झालर पहने
हुई मुँडेरे माँग लगी फिर भरने
डेहरी डेहरी उजियारे की
चिड़िया लगी उतरने
एक हाशिया सघन सुखों का
कालम ले आया

काजल भरी
रात की आखों हँसने लगा सवेरा
फिर जहाज का पंछी लौटा
चहका रैन बसेरा
अपना "सांताक्रूज", "अमौसी",
"पालम" ले आया

- यश मालवीय
(इलाहाबाद)

5 टिप्‍पणियां:

  1. नवगीत और वो भी यश मालवीय जी का, फिर तो माटी की सौंधी सुगंध की पूरी पूरी गेरेंटी हो ही जाती है। बहुत ही सुंदर नवगीत। पूर्णिमा जी आप का नवगीत के लिए यह समर्पण सहज प्रशंसनीय और वंदनीय है।

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  2. यश मालवीय जी का नवगीत संपूर्ण नवगीत है और हम जैसे विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उन्हें बहुत बहुत बधाई

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  3. काजल भरी
    रात की आखों हँसने लगा सवेरा
    फिर जहाज का पंछी लौटा
    चहका रैन बसेरा
    अपना "सांताक्रूज", "अमौसी",
    "पालम" ले आया
    नवगीत बहुत ही सुन्दर है .
    बधाई
    rachana

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  4. बतियाती, रसोई, पोई, बालम, छुई, मुँडेरे आदि से अभीव्यक्त टटकापन ही नवगीत की प्राणशक्ति है.
    आपके बिम्ब, प्रतीक, कथ्य और कहन अनूठे हैं. बधाई.
    काजल भरी
    रात की आखों हँसने लगा सवेरा
    फिर जहाज का पंछी लौटा
    चहका रैन बसेरा
    अपना "सांताक्रूज", "अमौसी",
    "पालम" ले आया
    क्या कहने...

    भेंट की प्रतीक्षा है...

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