9 दिसंबर 2011

१०. गया साल

जैसे -तैसे गुज़रा है
पिछला साल

एक-एक दिन बीता है
अपना, बस हीरा चाटते हुए
हाथ से निवाले की
दूरियाँ, और बढीं, पाटते हुए

घर से, चौराहों तक
झूलतीं हवाओं में
मिली हमें
कुछ झुलसे रिश्तों की
खाल

व्यर्थ हुई
लिपियों-भाषाओं की
नए-नए शब्दों की खोज
शहर, लाश घर में तब्दील हुए
गिद्धों का मना महाभोज

बघनखा पहनकर
स्पर्शों में
घेरता रहा हमको
शब्दों का
आक्टोपस जाल

माहेश्वर तिवारी
मुरादाबाद से

2 टिप्‍पणियां:

  1. माहेश्वर भाई का नवगीत पाठशाला से जुड़ना अभिव्यक्ति परिवार की निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है| वैसे यह गीत मुझे चकित कर गया - उनके आम नवगीतों के स्वभाव से इस गीत का स्वर-स्वभाव मेल नहीं खाता| फिलवक्त के सन्दर्भों की आख्या कहता एक सशक्त गीत है यह| माहेश्वर भाई को इस गीत हेतु नमन और अभिव्यक्ति-अनुभूति परिवार को साधुवाद!

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  2. बहुत सुंदर नवगीत है माशेश्वर जी का, पढ़वाने के लिए आभार

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