यद्यपि अपनी चेतनता के
बन्द कपाट किये हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की
फिर भी घिर-घिर आती
पास अँगीठी के बतियाती
बैठी रहतीं रातें
दीवारों पर काँपा करती
लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते
राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी
शेष रही कुछ स्याही
आँधी, पानी, तूफानों ने
लेख मिटा डाले वे
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर
अब भी मुझ तक आती
बजती थी कुछ दूर बाँसुरी
चीड़ों के घन वन में
जिसकी अनुगूँजें उठतीं थीं
कुहराई घाटी में
सीमान्तों की चुप्पी अंकित
जिसके मधुर क्वणन में
मोती ढरकें रात-रात भर
दूबों की पाटी में
पर किस शीशमहल में बन्दी
अब वे सब झंकृतियाँ
जिनकी गूँज कहीं से
मेरे कानों में भर जाती
दरवाजों से या खिड़की से
घुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की
थकी-थकी आलापें
शेफाली से सुमन न झरते
ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं चहकतीं
मौसम की पगचापें
सूखी वे रंगीन पँखुरियाँ
पड़ीं धूल में होंगी
उनकी छुवन अकेलेपन में
अब भी क्यों सिहराती
-डॉ. राजेन्द्र गौतम
नई दिल्ली
बन्द कपाट किये हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की
फिर भी घिर-घिर आती
पास अँगीठी के बतियाती
बैठी रहतीं रातें
दीवारों पर काँपा करती
लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते
राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी
शेष रही कुछ स्याही
आँधी, पानी, तूफानों ने
लेख मिटा डाले वे
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर
अब भी मुझ तक आती
बजती थी कुछ दूर बाँसुरी
चीड़ों के घन वन में
जिसकी अनुगूँजें उठतीं थीं
कुहराई घाटी में
सीमान्तों की चुप्पी अंकित
जिसके मधुर क्वणन में
मोती ढरकें रात-रात भर
दूबों की पाटी में
पर किस शीशमहल में बन्दी
अब वे सब झंकृतियाँ
जिनकी गूँज कहीं से
मेरे कानों में भर जाती
दरवाजों से या खिड़की से
घुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की
थकी-थकी आलापें
शेफाली से सुमन न झरते
ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं चहकतीं
मौसम की पगचापें
सूखी वे रंगीन पँखुरियाँ
पड़ीं धूल में होंगी
उनकी छुवन अकेलेपन में
अब भी क्यों सिहराती
-डॉ. राजेन्द्र गौतम
नई दिल्ली
इस नवगीत में राजेन्द्र गौतम ने अन्तश्चेतना के अछूते आयामों की यात्रा की है| स्मृति-अवशेषों को टेरता यह गीत, सच में, अद्भुत बन पड़ा है| भीतर जो शेफाली की झरन है, उसी को उकेरता है यह गीत| साधुवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत है डा राजेन्द्र गौतम जी का, शिशिर की साँझ का पलकों में घिर घिर आना..... तमाम स्मृतियों के बंद झरोखों को खोलता हुआ ये नवगीत कथ्य और शिल्प दोनों की दृष्टि से परिपक्व नवगीत है।
जवाब देंहटाएंमलयानिल सुरभित नासाग्रा
जवाब देंहटाएंहोंठ वसन्ती कोंपल
पल पल पुलकित स्पर्शों से
हस्त पाद मृदु कोमल
दरवाजों से या खिड़की से
घुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की
थकी-थकी आलापें
शेफाली से सुमन न झरते
ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं चहकतीं
मौसम की पगचापें
सूखी वे रंगीन पँखुरियाँ
पड़ीं धूल में होंगी
उनकी छुवन अकेलेपन में
अब भी क्यों सिहराती
राजेंद्र जी!
बहुत बधाई... आपने इस नवगीत यात्रा में हरसिंगार को संबंधों से जोड़ने के क्रम से हटकर शेफाली को भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है. वाह... वाह.. करने को विबश करता नवगीत.
बिम्बों से सजी एक सार्थक गीत के लिए बधाई |
जवाब देंहटाएंअवनीश तिवारी
मुम्बई
अद्भुत नवगीत है राजेन्द्र गौतम जी का।
जवाब देंहटाएंदरवाजों से या खिड़की से
जवाब देंहटाएंघुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की
थकी-थकी आलापें
शेफाली से सुमन न झरते
ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं चहकतीं
सुंदर पंक्तियाँ
सुंदर भावों और शब्दों से सजा सार्थक नवगीत
बधाई आपको
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