11 सितंबर 2012

२. गली की धूल

समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर

न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी
गरीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर

खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में
मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर

पिता की जिन्दगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे
स्वप्न, श्रम, खाँसी
कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर

बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में
शहर से हम भिड़े
सर्विस बचाने में
कहाँ बदलाव ले आया?
शहर है या कि है अजगर

- अवनीश सिंह चौहान

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा नवगीत..

    बुढ़ाए दिन
    लगे साँसें गवाने में
    शहर से हम भिड़े
    सर्विस बचाने में
    कहाँ बदलाव ले आया?
    शहर है या कि है अजगर
    वाह...अच्छा - सच्चा नवगीत..

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  2. न भर पाती हमारे
    प्यार की गगरी
    पिता हैं गाँव
    तो हम हो गए शहरी
    गरीबी में जुड़े थे सब
    तरक्की ने किया बेघर

    खुशी थी तब
    गली की धूल होने में
    उमर खपती यहाँ
    अनुकूल होने में
    मुखौटों पर हँसी चिपकी
    कि सुविधा संग मिलता डर
    ...सच्ची ...मन को छूती रचना !!!!!

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  3. बुढ़ाए दिन
    लगे साँसें गवाने में
    शहर से हम भिड़े
    सर्विस बचाने में
    कहाँ बदलाव ले आया?
    शहर है या कि है अजगर

    बहुत सुंदर नवगीत।

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  4. बहुत सुंदर नवगीत रचा है अवनीश जी ने। उन्हें बहुत बहुत बधाई।

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  5. बहुत बहुत सुन्दर नवगीत . पिता की जिन्दगी थी
    कार्यशाला-सी
    जहाँ निर्माण में थे
    स्वप्न, श्रम, खाँसी
    कि रचनाकार असली वे
    कि हम तो बस अजायबघर
    ये पंक्तियाँ ......
    अत्यंत सुन्दर शब्दों में मार्मिक अभिव्यक्ति

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  7. जहाँ निर्माण में थे
    स्वप्न, श्रम, खाँसी..

    बुढ़ाए दिन
    लगे साँसें गवाने में
    ...बहुत ही संवेदनात्मक नवगीत है .ह्रदय पृष्ठ पर छप गया जैसे अक्षर अक्षर ..शब्द शब्द ..!!
    .रचनाकार को बहुत बहुत बधाई ..!!

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  9. परमेश्वर फूंकवाल12 सितंबर 2012 को 7:42 pm बजे

    बहुत सुन्दर नवगीत. पहले पढ़ चूका हूँ इस खूबसूरत गीत को , लेकिन पाठशाला के विषय के परिप्रेक्ष्य में दुबारा इसके माने समझे तो और गहरे अर्थ निकलते महसूस किये. आ अवनीश जी को बधाई.

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  10. नवगीत के सिद्ध हस्ताक्षर आ० अवनीश जी का बढ़िया नवगीत. मुखड़े से अंतिम अंतरे तक भावों की सुन्दर स्रष्टि.
    गरीबी में जुड़े थे सब
    तरक्की ने किया बेघर. ....
    ख़ुशी थी तब गली की धूल होने में
    उम्र खपती यहाँ अनुकूल होने में........
    कि रचनाकार असली वे
    कि हम तो बस अजायबघर
    हकीक़त के बहुत सुन्दर बिम्ब. सचमुच अब हम चीज़ों को संग्रह कर खुशियों का अजायबघर बना रहे हैं. एक शानदार नवगीत.

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  11. 'खुशी थी तब
    गली की धूल होने में
    उमर खपती यहाँ
    अनुकूल होने में
    मुखौटो पर हंसी चिपकी
    कि सुविधा संग मिलता डर '
    ...बहुत ही भावपूर्ण नवगीत ।

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  12. अवनीश सिंह चौहान जी का यह गीत हमें उन सनातन सन्दर्भों से जोड़ जाता है, जो हमारी अस्मिता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी व्याख्यायित करते रहे हैं|ये पंक्तियाँ इस गीत को विशिष्ट बनाती हैं -
    'पिता की जिन्दगी थी
    कार्यशाला-सी
    जहाँ निर्माण में थे
    स्वप्न, श्रम, खाँसी
    कि रचनाकार असली वे
    कि हम तो बस अजायबघर'
    साधुवाद अवनीश जी को इस श्रेष्ठ नवगीत के लिए और 'नवगीत पाठशाला' को भी ऐसी रचना को शामिल करने के लिए|

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  13. उत्तम द्विवेदी15 सितंबर 2012 को 5:12 pm बजे

    आद्यांत संवेदना में डूबा हुआ नवगीत हृदय को छू गया.सुन्दर नवगीत के लिए बधाई.

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  14. एक संघर्षरत आम आदमी को केन्द्र में रखकर लिखा गया बहुत सुन्दर नवगीत है अवनीश चौहान का, वधाई

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  15. एक संघर्षरत आम आदमी को केन्द्र में रखकर लिखा गया बहुत सुन्दर नवगीत है अवनीश चौहान का, वधाई

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  16. अनिल वर्मा, लखनऊ.21 सितंबर 2012 को 8:28 am बजे

    खुशी थी तब
    गली की धूल होने में
    उमर खपती यहाँ
    अनुकूल होने में
    मुखौटों पर हँसी चिपकी
    कि सुविधा संग मिलता डर
    बहुत ही सुन्दर अंतरा. सुन्दर नवगीत के लिये बधाई अवनीश जी.

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  17. पिता की जिन्दगी थी
    कार्यशाला-सी
    जहाँ निर्माण में थे
    स्वप्न, श्रम, खाँसी
    कि रचनाकार असली वे
    कि हम तो बस अजायबघर'
    खुशी थी तब
    गली की धूल होने में
    उमर खपती यहाँ
    अनुकूल होने में
    सुन्दर पंक्तियाँ, बधाई

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