छिपकली की
पूँछ-से
कल शून्य में तैरे रहे
ध्रुव, चाँद पर भी चढ़ गए
तिल थे कभी पर कीमती
अब ताड़ से हैं बढ़ गए
हो गए निष्प्रभ निरर्थक
आज नकली
मूँछ से
गर्द हमने झाड़ ली है
तोड़ कर सब मकड़जाले
द्वार पर की रोशनी है
बुझा भीतर के उजाले
घाव कर बैठे स्वयं पर
हम अहं की
बूच से
संचयित युग-संस्कारों
की बडी गाढ़ी कमाई
यंत्र-युग की भटकनो में
आत्मा हमने गँवाई
ढुल गया सत नालियों में
रह गए हम
छूँछ-से
-शशिकांत गीते
खंडवा
बहुत बहुत बधाई आ शशीकांत जी इस सुन्दर नवगीत के लिए. बहुत कुछ सीखने को मिलता है इतनी सशक्त रचना को पढ़कर. सचमुच आज हम अपनी गाढी कमाई को लुटाकर शिखर पर बैठे हैं. आपका गीत हमारी विवशताओं और कमजोरियों का सुन्दर लेखा जोखा है.
जवाब देंहटाएंआ. परमेश्वर फुंकवाल जी, बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिये ह्रदय से धन्यवाद
हटाएंgood post
जवाब देंहटाएंआ. मनु त्यागी जी, नवगीत को पसंद कर अपनी प्रोत्साहक प्रतिक्रिया से अवगत करने के लिये हार्दिक धन्यवाद.
हटाएं
जवाब देंहटाएंसंचयित युग-संस्कारों
की बडी गाढ़ी कमाई
यंत्र-युग की भटकनो में
आत्मा हमने गँवाई
ढुल गया सत नालियों में
रह गए हम
छूंछ से।
अद्भुत बिम्ब संयोजन से सजा सुंदर नवगीत। शशिकांत जी को हार्दिक बधाई।
आ. कल्पना रामानी जी, प्रोत्साहक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंतिल थे कभी पर कीमती
जवाब देंहटाएंअब ताड़ से हैं बढ़ गए .
.
घाव कर बैठे स्वयं पर
हम अहं की
बूच से..
यंत्र-युग की भटकनो में
आत्मा हमने गँवाई
हार्दिक बधाई कलमकार को ..इतने प्रभावी नवगीत हेतु ....सच ही है ..की आधुनिकता के वार से हम कट ही तो गए हैं छिपकली की पूँछ से ..!!
आ. भावना तिवारी जी, जब अपने समानधर्मा योग्य और अपेक्षाकृ्त युवा मित्रों से रचना पर सहमति/बधाई मिलती है तो बहुत अच्छा लगता है. हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंयंत्र-युग की भटकनो में
जवाब देंहटाएंआत्मा हमने गँवाई
ढुल गया सत नालियों में
रह गए हम
छूँछ-से
बहुत ही सार्थक. खूबसूरत नवगीत के लिये बधाई गीते जी.
आ. अनिल वर्मा जी, हार्दिक धन्यवाद
हटाएंसंचयित युग-संस्कारों
जवाब देंहटाएंकी बडी गाढ़ी कमाई
यंत्र-युग की भटकनो में
आत्मा हमने गँवाई
ढुल गया सत नालियों में
रह गए हम
छूँछ-से.......वाह बहुत सुन्दर बिम्ब और प्रतिम्ब के माध्यम से बिखरते संस्कारों की पीड़ा को लिखा है
आदरणीय, हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंकल शून्य में तैरे रहे
जवाब देंहटाएंआपके गीत हमेशा से एक अलग छाप छोड़ते हैं
ध्रुव, चाँद पर भी चढ़ गए
तिल थे कभी पर कीमती
अब ताड़ से हैं बढ़ गए
हो गए निष्प्रभ निरर्थक
आज नकली
मूँछ से
कितनी सुंदरता से आपने भाव उकेरे हैं ....एक कठिन मुखड़े का सुन्दर निर्वाह .....बधाई आपको शशिकांत जी
हमेशा की तरह उत्साहवर्धन करने के लिये हार्दिक धन्यवाद, आ. संध्या सिंह जी.
हटाएंआ० गीते जी के नवगीतों में उनकी विशिष्ट छाप होती है. संक्षिप्त शब्द, सर्वथा नये उपमान, कथ्य का सफल सम्प्रेषण, लय का निर्वाह सभी कुछ नवगीतकारों के लिए अनुकरणीय. यह नवगीत भी इस शिल्प से आवेष्टित है.
जवाब देंहटाएंकटे अपने आपसे हम
छिपकली से पूँछ से.
आधुनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में पूंछकटी छिपकली की विकलता की सादृश्यता बहुत मर्मस्पर्शी है.
कल शून्य में तैरे रहे
ध्रुव चाँद पर भी चढ़ गये ....आज नकली मूंछ से.
द्वार पर की रौशनी है
बुझा भीतर के उजाले. ..........
यन्त्र युग की भटकनों में
आत्मा हमने गंवाई.
ढुल गया सत नालियों में
रह गये हम छूंछ से.
बहुत सुन्दर नवगीत. badha
बधाई शशिकांत गीते जी को.
आ.गीतफरोश जी, आपने मेरे और भी नवगीत पढ़े हैं, यह जानकर बहुत अच्छा लगा. नवगीतों पर समग्रता में की गई आपकी बहुत उर्जस्वित करने वाली समीक्षात्मक टिप्पणी से अभिभूत हूँ. हार्दिक आभार.
हटाएंइस शानदार नवगीत के लिए शशिकांत जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंआ. धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंयन्त्र युग की भटकनोँ में
जवाब देंहटाएंआत्मा हमने गंवाई
ढुल गया सत नालियों मेँ
रह गए हम
छूंछ से ।
भौतिकता के सत्य को व्यक्त करता नवगीत ।
हार्दिक बधाई शशिकाँत जी ।
आ. सुरेन्दर पाल जी, हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंभौतिकवाद पर बड़ी सार्थक बात कही है . वधाई .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बिम्ब उकेरे हैं आपने .
जवाब देंहटाएंसाधुवाद .
बधाई सार्थक नवगीत के लियें ..