आज फिर
कोई शहर की भीड़ मे
गुम हो गया
सिमट गई चौपाल
उदास है पीपल बरगद
लील रही विस्तार गाँव का
शहरों की हद
सोचते हैं
कौन सूनापन यहाँ पर
बो गया
ताल-तलैया पेड़
और घर पनघट कूआँ
अमराई में बिन सखियोँ के
झूला सूना
कौन चितेरा
इन चित्रों से रंग उड़ाकर
खो गया
चुपचुप हैँ बैलोँ के घुंघरु
खोई है रुनझुन
जन उत्सव से लुप्त हुई
शहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया
- सुरेन्द्रपाल वैद्य
कोई शहर की भीड़ मे
गुम हो गया
सिमट गई चौपाल
उदास है पीपल बरगद
लील रही विस्तार गाँव का
शहरों की हद
सोचते हैं
कौन सूनापन यहाँ पर
बो गया
ताल-तलैया पेड़
और घर पनघट कूआँ
अमराई में बिन सखियोँ के
झूला सूना
कौन चितेरा
इन चित्रों से रंग उड़ाकर
खो गया
चुपचुप हैँ बैलोँ के घुंघरु
खोई है रुनझुन
जन उत्सव से लुप्त हुई
शहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया
- सुरेन्द्रपाल वैद्य
सुंदर नवगीत के लिए सुरेन्द्र जी को बधाई
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभारी हुँ धर्मेन्द्र जी ।
हटाएंसिमट गई चौपाल
जवाब देंहटाएंउदास है पीपल बरगद
लील रही विस्तार गाँव का
शहरों की हद
सोचते हैं
कौन सूनापन यहाँ पर
बो गया
आ सुरेन्द्रपाल जी, गाँव की महक की याद दिलाते सुन्दर नवगीत के लिए आपको बहुत बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंआद. परमेश्वर फूंकवाल जी आपकी प्रेरणास्पद प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभारी हुँ ।
हटाएंसिमट गई चौपाल
जवाब देंहटाएंउदास है पीपल बरगद
लील रही विस्तार गाँव का
शहरों की हद
सोचते हैं
कौन सूनापन यहाँ पर
बो गया
सुंदर और सटीक चित्रण। वर्तमान का गाँव से शहर के पलायन का अंधानुकरण हमें जीवन में अति संघर्ष करने को मजबूर कर रही है। हम शांति की जगह अशांति की ओर अग्रसर हैं।
आकुल जी सही कहा आधुनिकता के उपक्रम में हमारा ग्रामीण परिवेश सिमटता जा रहा है ।
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभारी हुं ।
लौकिक संस्कृति में डूबा व सुंदर लय में रचित एक अच्छे नवगीत के लिए वैद्य जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंउत्तम द्विवेदी जी आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभारी हुँ ।
हटाएंताल.तलैया पेड़, और घर पनघट कूआँ
जवाब देंहटाएंअमराई में बिन सखियोँ के, झूला सूना
कौन चितेरा, इन चित्रों से रंग उड़ाकर,
खो गया
सुंदर पंक्तियाँ सुरेन्द्रपाल जी को बहुत बहुत बधाई,
विमल कुमार हेड़ा।
विमल कुमार जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
हटाएंबहुत सुंदर, सजीव चित्रण. बधाई.
जवाब देंहटाएंजन उत्सव से लुप्त हुई
जवाब देंहटाएंशहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया
सुन्दर सुगठित नवगीत के लिए सुरेन्द्र पाल जी को बधाई
आ. संध्या जी प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत आभारी हुँ ।
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जवाब देंहटाएंचुपचुप हैँ बैलोँ के घुंघरु
खोई है रुनझुन
जन उत्सव से लुप्त हुई
शहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया
बहुत सुदर नवगीत के लिए सुरेन्द्र जी को बधाई
जन उत्सव से लुप्त हुई
जवाब देंहटाएंशहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया
इस गीत की अन्तर्ध्वनियाँ विशुद्ध लोक-संचेतना की हैं| इस नाते यह अन्य प्रविष्टियों से अलग है| हमारी पारम्परिक सांस्कृतिक चेतना को टेरता और उसके विघटन की गाथा कहते इस अच्छे गीत के लिए भाई सुरेन्द्रपाल वैद्य को मेरा हार्दिक साधुवाद!
आदरणीय कुमार रविन्द्र जी आपकी प्रेरणादायी प्रतिक्रिया के लिये हृदय से आभारी हुँ ।
हटाएंआज फिर
जवाब देंहटाएंकोई शहर की भीड़ मे
गुम हो गया.
नवगीत का मुखड़े से यह प्रतिध्वनित होता है कि प्रतिदिन ही इस मायानगरी में कोई न कोई गुम हो रहा है.
चुपचुप हैँ बैलोँ के घुंघरु
खोई है रुनझुन
जन उत्सव से लुप्त हुई
शहनाई की धुन
लोकगीत की
मधुर तान को सुने इक दशक
हो गया.
दिन भर काम के बोझ से थके कन्धों की क्लान्ति उतारने के लोक आग्रही उपादानों की विलुप्ति की कसक बहुत प्रभावी है.
आपने प्रतिक्रिया मेँ जिन बातोँ की चर्चा की है उससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है । बहुत बहुत धन्यवाद ।
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