11 नवंबर 2013

१०. ये कैसी उजियारी

ये कैसी रफ्तार जहाँ की
ये कैसी उजियारी है

घात लगाए
बैठे हैं सब, क्या पहरी क्या चोर यहाँ,
न्याय पे हावी है मुंसिफ व, क़ातिल के गठजोड़ यहाँ
गाँव शहर में एक तरह सी
फैल रही अँधियारी है

अपनेपन की
छाँव कहाँ है रिश्तों की अँगनाई में
रीत गए अहसास हमारे किश्तों की भरपाई में
ओछे अपने सपने सारे ओछी
दुनियादारी है

ख़ुदगर्जी की
चील वतन के ख्वाबों पर मँडराती है
जहाँ देखिए लूट, हवस की बाली ही बलखाती है
घर, सरहद महफूज नहीं तो
लानत ये सरदारी है

-शंभुशरण मंडल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।