घर सजे हैं,
शुभ मुहूरत आ रहा।
शहनाईयाँ,
बजने का मौसम आ रहा।
प्यार से नजरें मिली,
कुछ कह गई।
स्वप्न में फिर,
डूबती सी खो गई।
मन युवा,
होकर सयाना आ रहा।
पसन्द अपनी,
पीढ़ियोँ पर थोपते थे।
और इसको ही,
सही वे बोलते थे।
रूढ़ियों का,
क्रम पुराना जा रहा।
बैण्ड के स्वर,
लोकगीतों में घुले।
चिर पुरातन और नूतन,
ध्रुव मिले।
सबको मिश्रित,
सोच का स्वर भा रहा।
आवरण बदला,
मगर स्पंदन वही है।
दो दिलों की चाहतें,
अब भी वही हैं।
एक चिन्तन ,
ले नयापन आ रहा।
-सुरेन्द्रपाल वैद्य।
मंडी हि.प्र.
शुभ मुहूरत आ रहा।
शहनाईयाँ,
बजने का मौसम आ रहा।
प्यार से नजरें मिली,
कुछ कह गई।
स्वप्न में फिर,
डूबती सी खो गई।
मन युवा,
होकर सयाना आ रहा।
पसन्द अपनी,
पीढ़ियोँ पर थोपते थे।
और इसको ही,
सही वे बोलते थे।
रूढ़ियों का,
क्रम पुराना जा रहा।
बैण्ड के स्वर,
लोकगीतों में घुले।
चिर पुरातन और नूतन,
ध्रुव मिले।
सबको मिश्रित,
सोच का स्वर भा रहा।
आवरण बदला,
मगर स्पंदन वही है।
दो दिलों की चाहतें,
अब भी वही हैं।
एक चिन्तन ,
ले नयापन आ रहा।
-सुरेन्द्रपाल वैद्य।
मंडी हि.प्र.
सुंदर भावों से भरा नवगीत...सुरेन्द्र्पाल जी को हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करते सुन्दर शब्दों के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद कल्पना रामानी जी।
हटाएंसुरेन्द्रपाल जी को सुंदर नवगीत हेतु बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रतिक्रिया के लिये आपका धन्यवाद धर्मेन्द्र जी।
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