आपस में यूँ
जब से बिखरा है गाँव
कुछ उदास रहती है
पीपल की छाँव
खटिया से टूट गयी
खटिया की गोई
तपती दोपहरी की
चहल–पहल खोई
बिना नींव के ही
हैं खड़े मनमुटाव
मीठी बोली से भी
हुई बदसलूकी
बरसों से टहनी पर
कोयलें न कूकीं
बची रही कौओं की
सिर्फ काँव–काँव
कब तक चल पायेगी
ऐसी नादानी
है मनुष्य आखिर तो
सामाजिक प्राणी
कभी फिर बढ़ेगा
सद्भावों का भाव
–रविशंकर मिश्र
प्रतापगढ़ (उ.प्र.)
जब से बिखरा है गाँव
कुछ उदास रहती है
पीपल की छाँव
खटिया से टूट गयी
खटिया की गोई
तपती दोपहरी की
चहल–पहल खोई
बिना नींव के ही
हैं खड़े मनमुटाव
मीठी बोली से भी
हुई बदसलूकी
बरसों से टहनी पर
कोयलें न कूकीं
बची रही कौओं की
सिर्फ काँव–काँव
कब तक चल पायेगी
ऐसी नादानी
है मनुष्य आखिर तो
सामाजिक प्राणी
कभी फिर बढ़ेगा
सद्भावों का भाव
–रविशंकर मिश्र
प्रतापगढ़ (उ.प्र.)
सुन्दर नवगीत हेतु हार्दिक बधाई रवि जी
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