दायरों के
इस घने से संकुचन में
जेठ से तपते हुए
ये प्रश्न सारे
ढूँढ़ते हैं
पीत सा कनेर कोई
राह का हर आचरण
अब पत्थरों सा
ओस की बूँदें गिरीं
घायल हुई थीं
इन पठारों को
कहाँ आभास होगा
जो शिराएँ बीज की
आहत हुई थीं
अब हवा भी खोजती है
वह किनारा
हो जहाँ पर
लाल-सा कनेर कोई
अब बवंडर रेत के
उठने लगे हैं
आँख में मारीचिका
फिर भी पली है
पाँव धँसते हैं
दरकती हैं जमीनें
आस हर अब
ठूँठ सी होती खड़ी है
दृश्य से ओझल हुए हैं
रंग सारे
काश होता
श्वेत सा कनेर कोई
- बृजेश नीरज
इस घने से संकुचन में
जेठ से तपते हुए
ये प्रश्न सारे
ढूँढ़ते हैं
पीत सा कनेर कोई
राह का हर आचरण
अब पत्थरों सा
ओस की बूँदें गिरीं
घायल हुई थीं
इन पठारों को
कहाँ आभास होगा
जो शिराएँ बीज की
आहत हुई थीं
अब हवा भी खोजती है
वह किनारा
हो जहाँ पर
लाल-सा कनेर कोई
अब बवंडर रेत के
उठने लगे हैं
आँख में मारीचिका
फिर भी पली है
पाँव धँसते हैं
दरकती हैं जमीनें
आस हर अब
ठूँठ सी होती खड़ी है
दृश्य से ओझल हुए हैं
रंग सारे
काश होता
श्वेत सा कनेर कोई
- बृजेश नीरज
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