4 जुलाई 2014

१८. नन्हा कनहल

खिला बाग़ में, नन्हा कनहल
प्यारा लगने लगा महीना
रोज बदलते है मौसम, फिर
धूप-छाँव का परदा झीना।

आपाधापी में डूबे थे
रीते कितने, दिवस सुहाने
नीरसता की झंझा, जैसे
मुदिता के हों बंद मुहाने

फँसे मोह-माया में ऐसे
भूल गए थे, खुद ही जीना

खिले कनेर की इस रंगत में
नई किरण आशा की फूटी
शैशव की तुतलाती बतियाँ
पीड़ा की है जीवन बूटी

विषम पलों में प्रीत बढ़ाता
पीतवर्ण, मखमली नगीना

- शशि पुरवार
वर्धा

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