21 जुलाई 2014

२०. रिमझिम बरसात में - पल्लव

आज धरा पर
झुका गगन है, पुनर्मिलन को आतुर मन है ।
क्षितिज कसा ज्योँ बाहुपाश हो
आवेशित दोनोँ का तन है

सूर्य निकट आता है
ज्योँ ज्योँ, विरह तपिश बढती जाती है
दृष्टि कशिश पारे के कण सी - ऊर्ध्वमुखी चढती जाती है
पर नभ को सब ज्ञात धरा का ध्वंस
यही जो जीवन धन है

घन नभ के मृदु
आभासोँ का सांकेतिक सम्प्रेषण जैसे
या कि धरा के तप्त बदन पर झुलसा आँसूकण घन जैसे
नभ ही घन है. घन ही जल है
या कह लो जल ही जीवन है

खग पशु वृक्ष लता
मेँ धरती बहु विधि हर्ष प्रदर्शित करती
शैल शिखर या धरा उचक कर नभ का है आलिंगन करती
घन गर्जन से ताल मिलाता
मुदित मयूरों का नर्तन है

- पल्लव

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