22 जुलाई 2014

२२. रात भर बरसी घटाएँ- प्रदीप शुक्ल

रात भर बरसी घटाएँ
अब ज़रा-सा थम गयी हैं !
थक गयी बूँदें
ठिठक कर खिड़कियों पर
जम गयी हैं !!

रात ड्यूटी पर गयी माँ
हॉस्पिटल से फ़ोन करती
दिल धड़कता है
कभी खिड़की पे जब
बिजली कड़कती
बेटियाँ घर पर अकेली,
पिता बाहर,
सास भी आश्रम गयी हैं !

रात बारिश भीग कर
सूरज सुबह भी सो रहा है
या कि बादल में
छुपा कर मुहँ,
सुबक करके रो रहा है
किसी कवि की पंक्तियाँ ये
रेडियो पर
आर जे'' को जम गयी हैं !

रात भर ड्यूटी, पड़ा घर पर
सुबह का काम होगा
भारी बारिश से
सड़क पर
रास्ता भी जाम होगा
अपशगुन काली घटाएँ
शहर के माथे पे आकर
रम गयी हैं !

मेरी दीवार से लग कर
पुरानी टीन का टप्पर
घुसा पानी है उसमे
या कि पानी में
घुसा है घर
उस तरफ दीवार, खिड़की
भरी बौछारों से आँसू
नम गयी हैं !

डॉ. प्रदीप शुक्ल

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