2 जुलाई 2014

१४. अब हैं सुर्ख कनेर

पहले पीला फिर नारंगी
अब है सुर्ख कनेर

पत्ती नदी लाँघने निकली हाथ नहीं पतवार
लहरों के आँचल में उलझी नाप सकी न धार
उतर गई गहरे पानी में
बुरे दिनों का फेर

बीत गई मोती की आभा माटी हुआ स्वरूप
जाने कौन घड़ी में जन्मा छाया मिली न धूप
आँखों से गिर गया निमिष में
हुआ टूटकर ढेर

मुँह बिजलाती नीम निगोड़ी हुई सूखकर बाँस
ऐसा मंतर मारा जाकर लौट सकी न साँस
किससे घर का रोना रोये
गली-गली अंधेर

भीख माँगती चौराहों पर घुनी हुई तकदीर
जब से पानी मरा आँख का तबसे हुई फकीर
क्या जाने कब छप्पर फाड़े
पूछे हाल कुबेर

बरगदिया की पीढ़ी चुक गई माँग माँग कर न्याय
आँखे फाड़े बूढ़ी हड्डी कब तक बीन बजाय
छाती पर का पीपर हो गए
उसके राम सुमेर

-निर्मल शुक्ल
लखनऊ

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