बरसात में गीतों के स्वर
घुलने लगे हैं
नेह के उर में
बजी प्रिय तान है
ओंठ पर इक
मदभरी मुस्कान है
धड़कनों के बीच
कोमल से हृदय में
स्नेह के मृदु भाव फिर
पलने लगे हैं।
कोयलों की कूक से
फिर गूँजती है घाटियाँ
और झूलों से पटी
बौरा रही अमराईयाँ
सुप्त मन में
चाहतों के स्वप्न फिर
जगने लगे हैं।
तृप्त होती है धरा
जल बरसने से
कौंध जाती है तड़ित
घन सरसने से
श्रावणी त्यौहार है
घर द्वार मन्दिर खूब सब
सजने लगे हैं।
- सुरेन्द्रपाल वैद्य
घुलने लगे हैं
नेह के उर में
बजी प्रिय तान है
ओंठ पर इक
मदभरी मुस्कान है
धड़कनों के बीच
कोमल से हृदय में
स्नेह के मृदु भाव फिर
पलने लगे हैं।
कोयलों की कूक से
फिर गूँजती है घाटियाँ
और झूलों से पटी
बौरा रही अमराईयाँ
सुप्त मन में
चाहतों के स्वप्न फिर
जगने लगे हैं।
तृप्त होती है धरा
जल बरसने से
कौंध जाती है तड़ित
घन सरसने से
श्रावणी त्यौहार है
घर द्वार मन्दिर खूब सब
सजने लगे हैं।
- सुरेन्द्रपाल वैद्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।