3 सितंबर 2014

२. पंख जलना बेबसी है - शशि पुरवार

काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के महल में
खोखली, रहती हँसी है

तीर सूखे है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है

- शशि पुरवार

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