8 जून 2009

८- धरा से उगती उष्मा

धरा से उगती ऊष्मा, तड़पती देह के मेले
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

यहाँ उपभोग से ज़्यादा प्रदर्शन पे यकीं क्यों है
तटों को मिटा देने का तुम्हारा आचरण क्यों है
तड़पती मीन- तड़पन को अपना कल समझ लो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

मुझे तुम माँ भी कहते निपूती भी बनाते हो
मेरे पुत्रों की ह्त्या कर वहां बिल्डिंग उगाते हो
मुझे माँ मत कहो या फिर वनों को उनका हक दो
दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

रचनाकार ने अपनी रचना कुछ संशोधन के साथ पुनः प्रस्तुत की है। नया स्वरूप इस प्रकार है-

धरा से ऊगती उष्मा,
तड़पती देह के मेले
दरकती भू ने समझाया,
ज़रा अब तो सबक ले ले

तू मुझको माँ भी कहता है
निपूती भी बनाता है
मेरे पुत्रों का वध कर-के
भवनों को उगाता है
न कह तू माँ मुझे या
फिर वनों को उनका हक दे दे
मुझे माँ ने है समझाया
ज़रा अब तो सबक ले ले

मुझे तुझसे कोई शिकवा नहीं
न कोई अदावत भी
तेरे ही आचरण में जाने
क्यों पलती बगावत सी
मेघ तुझसे रूठें हैं ,
इसी से तू समझ ले ले
दरकती भू ने समझाया,
ज़रा अब तो सबक ले ले

--गिरीश बिल्लौरे मुकुल

16 टिप्‍पणियां:

  1. प्रश्न ज्वलंत है जो इस नवगीत में हमारे समक्ष है - अच्छा लगा ये प्रयास
    स्नेह सहित
    - लावण्या

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  2. गीत का विषय सार्थक है, निर्वाह भी अच्छा हुआ है पर गीत के ढाँचे पर उतना समय नहीं दिया गया जितना देना चाहिए। शायद जल्दी जल्दी में लिखने और भेजने के कारण। कुछ समय दिया होता तो शायद मुखड़ा ऐसा होता-
    धरा से ऊगती उष्मा, तड़पती देह के मेले
    दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक ले ले
    अंतरे की पहली दो पंक्तियाँ बड़ी सुंदर हैं पर उसके बाद वही जल्दी देखाई देती है। आशा है अगली बार और समय देकर बेहतर रचना मिलेगी। नवगीत रचना आता है रचनाकार को यह तो स्पष्ट देखा जा सकता है।

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  3. भावाभिव्यक्ति विषयानुकूल है , बधाई
    प्रेरक पंक्ति है -
    दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो
    -विजय

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  4. ग्लोबल वार्मिंग के कारणों को आपने नवगीत के माध्यम से भलीभाँति व्यक्त करना चाहा है। प्रयास बढ़िया रहा। बधाई।
    पूर्णिमा जी की बात से मैं सहमत हूँ। हल्का सा बदलाव इसे और सुन्दर बना रहा है।

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  5. एक अच्छा संदेश देने वाला नवगीत है पर अच्छा प्रवाह बनाने के लिये कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा । या तो जैसा पूर्णिमा जी ने सुझाया है वैसा करें या एक स्वरूप ऐसा भी हो सकता है।
    धरा से ऊगती ऊष्मा, तड़पती देह के मेले
    दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

    यहाँ उपभोग से ज़्यादा प्रदर्शन पे यकीं क्यों ?
    तटों को मिटा देने का तुम्हारा आचरण क्यों ?
    तड़पती मीन- तड़पन को तुम अपना कल समझ लो
    दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

    मुझे तुम माँ भी कहते हो निपूती भी बनाते
    मेरे पुत्रों की ह्त्या कर वहां बिल्डिंग उगाते
    मुझे माँ मत कहो या फिर वनों को उनका हक दो
    दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो

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  6. ज्वलन्त विषय..शब्द चयन अच्छा है पर लय का निर्वाह और भी अच्छा हो सकता था । जैसे ‘तटों को तोड देना ’ हो सकता था ...बाकी पुर्निमा जी से मै सहमत हूं...गीत अच्छा है ..गीतकार को बधाई ।

    डा.रमा द्विवेदी

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  7. गीत सुंदर बन पड़ा है...

    किंतु पहले मिस्‍रे में तनिक उलझ गया। "तड़पती देह के मेले" कुछ अटपटा-सा लग रहा है। पूर्णिमा जी और कटारे जी जरा स्पष्ट करें तो बेहतर हो...तड़पती देह या देहों?

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  8. कथ्य और तथ्य बहुत सुंदर है. गीत के शिल्पगत सौंदर्य पर जो पूर्णिमा जी और कटारे जी के सुझाव हैं उनसे सहमती.

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  9. गौतम जी आपका सोचना ढीक है वहाँ पर मात्रा बढने के कारण देहों के स्थान पर देह लिखा गया है आशय वही है।

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  10. पूज्या
    पूर्णिमा जी
    आपका आदेश सर माथे
    सच मैंने आशु कवि बनाने के चक्कर में
    सभी पूज्य टिपण्णी कारों के प्रति विनत
    आभार
    सादर
    धरा से ऊगती उष्मा,
    तड़पती देह के मेले
    दरकती भू ने समझाया,
    ज़रा अब तो सबक ले ले

    तू मुझको माँ भी कहता है
    निपूती भी बनाता है
    मेरे पुत्रों का वध कर-के
    भवनों को उगाता है
    न कह तू माँ मुझे या
    फिर वनों को उनका हक दे दे
    मुझे माँ ने है समझाया
    ज़रा अब तो सबक ले ले

    मुझे तुझसे कोई शिकवा नहीं
    न कोई अदावत भी
    तेरे ही आचरण में जाने
    क्यों पलती बगावत सी
    मेघ तुझसे रूठें हैं ,
    इसी से तू समझ ले ले
    दरकती भू ने समझाया,
    ज़रा अब तो सबक ले ले

    जवाब देंहटाएं
  11. नवगीत में ज्वलन्त प्रश्नो की ओर संकेत किया है । एक प्रभावशाली रचना। बधाई।

    शशि पाधा

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  12. वाह वाह.. अब तो कमाल की रचना बन गई..

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  13. sanshodhan ke baad ek shaandar navgeet ban gaya hai. ab naam bhee aa gaya haiaur girish jee mere achche dost hai. badhaai

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  14. कोई भी सच नहीं है आख़िरी
    हर पल बदल दीजे
    कोई अपना कहे जो कुछ तो
    उसकी भी सुन लीजे
    यही जो भी समझ लेगा
    वही सफल है
    ज़िन्दगी का सच यही असल है
    सभी का आभार

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