9 जून 2009

९- जरा धूप फैली

जरा धूप फैली जो
चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती

पिघलती
सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्‍ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती

ये सूरज
जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना जरा कुनमुनायी
खयालों में
आकर, जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती

बगानों
में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती है मिट्टी सुगंधी
सुबह से
थकी है पड़ी शाम औंधी
सितारों भरी रात आयी झिझकती

--गौतम राजरिशी

15 टिप्‍पणियां:

  1. पिघलती सी देखी
    जो उजली सी वादी
    परिंदों ने की है
    शहर में मुनादी

    बहुत ही सुन्दर लय भरा नवगीत है। रचनाकार को बहुत-बहुत बधाई हो

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  2. प्रकृति वर्णन बारिकी से किया है -
    ये नवगीत भी पसँद आया
    - लावण्या

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  3. हिमालय की उपत्यकाओं में बिखरती इस सुहानी गर्मी का क्या कहना... सारी कविता काफ़ी पसंद आई, क्या रवानगी है क्या प्रकृति चित्रण है बिलकुल सादा फिर भी कलात्मक.. बहुत बहुत बधाई रचनाकार को... बगानों में फैली आम की गुठली की यादें जो गर्म बंडी पहनकर सुबह से रात तक घाटी में घूम रही है ऐसी कविताएँ इस कार्यशाला की शान हैं। हाँ ससरती की जगह सरसती या कोई सार्थक शब्द होता तो और अच्छा रहता।

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  4. "ज़रा धूप फैली" में दृश्यों को अच्छा उकेरा गया है.
    यदि हम "सँभलते-सँभलते भी दोपहरी फिसली" को
    छोड़ दें तो सामान्यतः लयात्मकता कहीं भी
    बाधित प्रतीत नहीं हुई.
    बधाई.
    - विजय

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  5. बहुत सुन्दर।
    ...
    थकी है पड़ी शाम औंधी
    सितारों भरी रात आयी झिझकती
    ...
    वाह खूब लिखा है।
    बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...अहसासों को छूने वाली रचना...रचनाकार को हार्दिक बधाई...

    डा.रमा द्विवेदी

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  7. बहुत अच्छा गीत लिखा गया है।ससरती तो शायद अंकनीय त्रुटि दिखती है। नवगीत सा नयापन लाने के लिये इसका यह स्वरूप भी हो सकता है।
    जरा धूप फैली जो
    चुभती कड़कती
    हवा गर्म चलने लगी है

    पिघलती
    सी देखी
    जो उजली ये वादी
    परिंदों ने की है शहर में मुनादी
    दरीचे खुले हैं सवेर-सवेरे
    चिनारों पे आये
    हैं पत्‍ते घनेरे
    उगी दूब हंसने लगी है

    ये सूरज
    जरा-सा
    हुआ है घमंडी
    कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
    उठी है तमन्ना जरा कुनमुनायी
    खयालों में
    आकर, जो तू मुस्कुरायी
    ये दूरी सिमटने लगी है

    बगानों
    में फैली
    जो आमों की गुठली
    सँभलते-सँभलते भी दोपहरी फिसली
    दलानों में उड़ती है मिट्टी सुगंधी
    सुबह से
    थकी है पड़ी शाम औंधी
    ये रातें झिझकने लगी हैं

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  8. पिघलती सी वादी, औंधी पड़ी शाम तथा हँसती, किलकती हुई दूब सभी बहुत ही सुन्दर शब्द चित्र हैं. रचनाकार को बधाई। हां, ससरती शब्द का अर्थ पता चलता तो अच्छा होता ।

    शशि पाधा

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  9. बहुत प्यारा नवगीत.
    परिंदों ने की है शहर में मुनादी..
    दरीचे खुले हैं सवेर-सवेरे
    सूरज
    जरा-सा
    हुआ है घमंडी
    कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
    थकी है पड़ी शाम औंधी
    अदभुत प्रयोग. इस गीत की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वो है नये प्रतीकों का सहज और भाषागत नया प्रयोग. रचनाकार को बहुत-बहुत बधाई

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  10. ये सूरज
    जरा-सा
    हुआ है घमंडी
    कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
    उठी है तमन्ना जरा कुनमुनायी

    garmee aur prakriti kaa sunder sajeev chitran

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  11. गौतम जी,
    स-सरती शब्द का अर्थ बताने के लिये धन्यवाद। अब गर्म हवा के ससराने की बात और भी अच्छी लगी, बिल्कुल ध्वनि चित्र की तरह। धन्यवाद।
    शशि पाधा

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