गर्मी के
मौसम र्में
चिलचिलाती धूप यह
कितनी हो क्रुद्ध चली।
घूम रही गली-गली
छांह के विरूद्ध पली।
अंतहीन
सड़कों में
पांव जले
डामर में
हांफने लगा जीवन
सांसों के घेरों में।
सन्नाटा घोल गया
क्या-क्या इन प्राणों में।
गर्मी के
मौसम में
देखो वह सृजनहार
हाथों में छाले
आँखों में आस लिये
रहता भ्रम पाले।
पेट की
बुझी न आग
कैसी है
नियति हाय!
मुट्ठी भर छाया ना
भाग्यहीन कहां जाय?
धरती शृंगार गया
झर-झर पसीने में।
गर्मी के
मौसम र्में
-- निर्मला जोशी
मौसम र्में
चिलचिलाती धूप यह
कितनी हो क्रुद्ध चली।
घूम रही गली-गली
छांह के विरूद्ध पली।
अंतहीन
सड़कों में
पांव जले
डामर में
हांफने लगा जीवन
सांसों के घेरों में।
सन्नाटा घोल गया
क्या-क्या इन प्राणों में।
गर्मी के
मौसम में
देखो वह सृजनहार
हाथों में छाले
आँखों में आस लिये
रहता भ्रम पाले।
पेट की
बुझी न आग
कैसी है
नियति हाय!
मुट्ठी भर छाया ना
भाग्यहीन कहां जाय?
धरती शृंगार गया
झर-झर पसीने में।
गर्मी के
मौसम र्में
-- निर्मला जोशी
अरे वाह ! गर्मी के दिन का हरेक नवगीत मेँ अच्छा वर्णन है
जवाब देंहटाएं- लावण्या
पूरी तरह नवगीत के रंग में रंगा यह गीत कथ्य और लय की दृष्टि से बहुत अच्छे नवगीतों में शामिल है। निश्चित रूप से गीतकार नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर है यह गीत स्वयं कह रहा है। पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर गीतकार को दो स्थानों पर पुनरावलोकन की सलाह देने को मन कर रहा है।
जवाब देंहटाएं१ " चिलचिलाती धूप यह " को " धूप चिलचिलाती यह " कहने से प्रवाह बहुत अच्छा हो जाता है।
२ गीतकार ने दो अन्तरों में दो तरह के प्रयोग किये हैं , हालाकि वे दोनों ही अच्छे हैं पर एक गीत में सभी अन्तरों में एकरूपता आवश्यक है। यहाँ प्रथम अन्तरा में चारों पंक्तियाँ १२ मात्रा वाली हैं जबकि दूसरे अन्तरा में द्वितीय और चतुर्थ पंक्तियाँ १० मात्रा वाली हैं, इनमें सहजता से एकरूपता लायी जा सकती है।
एक अच्छा नवगीत है जिसमें नए प्रतीक और बिम्बों का सुन्दर प्रयोग कवि ने किया है।
जवाब देंहटाएंदेखो वह सृजनहार
जवाब देंहटाएंहाथों में छाले
आँखों में आस लिये
रहता भ्रम पाले।
वाह! हर सृजनहार का यही भ्रम तो उसे निरंतर गतिशील बनाए रखता है। सुंदर रचना बधाई!
पेट की
जवाब देंहटाएंबुझी न आग
कैसी है
नियति हाय!
मुट्ठी भर छाया ना
भाग्यहीन कहां जाय?
धरती शृंगार गया
झर-झर पसीने में।
बहुत खूब....अच्छे नवगीत के लिए बधाई...
पेट की
जवाब देंहटाएंबुझी न आग
कैसी है
नियति हाय!
मुट्ठी भर छाया ना
भाग्यहीन कहां जाय?
धरती शृंगार गया
झर-झर पसीने में।
गर्मी के
मौसम र्में
bahut sunder aur marmik geet hai.