24 जून 2009

नवगीत से जुड़ी घटनाएँ

कभी कभी रचनाओं के साथ रोचक घटनाएँ जुड़ी होती हैं।

उदाहरण के लिए मेरी रचना "धूप के दिन आए" ऊपर दिए गए चित्र को देखने के बाद लिखी गई थी। क्या इस कार्यशाला में आपकी रचना के पीछे भी कोई रोचक घटना छुपी है जिसके साथ मिलकर आपका नवगीत और भी रोचक हो जाए, तो वह घटना हमें इस पृष्ठ पर दिए गए पते पर लिख भेजें। नवगीत के साथ उसे प्रकाशित करने में हमें प्रसन्नता होगी।
--पूर्णिमा वर्मन

7 टिप्‍पणियां:

  1. यह प्रयास भी रोचक है. गीत कहाँ से उपजा, जानना रोचक रहेगा.

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  2. kuchh purane nvgeet garmi par aadharit diye ja sakte hain
    गाढी हो गई धुप

    नीमों के नीचे भी ,
    गाढी हो गई धुप
    सूख गए फल वाले हरे कुंज आमों के,
    फूल के बगीचे भी,

    छायाएं सिमट गईं वस्त्रहीन पेड़ों में,
    सूखापन बिछा हुआ, खेतों में, मेड़ों में
    हाँफ रहा शहर ,गर्म हवा के थपेड़ों में,
    उड़ती है तपी धूल ,
    आगे भी ,पीछे भी,

    सड़कों पर दूर दूर सन्नाटा.
    झुलस गया कोलाहल
    सूखा, आकर्षण चौराहों का
    कुम्हलायी चहल॰पहल
    भाप बन गए ,पुरइन वाले तालाब कुएं
    कलशों का ठंडा जल,

    बित्तों भर बची नदी ,
    भिगो नहीं सकी मुई गोरी की घांघर को
    टखनों के नीचे भी,

    कमरों में जमीं हुई खामोशी,
    बाहर है पिघलापन,
    मौसम के आग बुझे हाथ, छू रहे तन को,
    मन को भी घेरे है, एक तपन,
    और एक याद, जो चमक उठती रह रह
    ज्यों धूप में टंगा दर्पण ,

    सुलग रहे हरियाली के आँचल,
    दूब के गलीचे भी,
    नीमों के नीचे भी ,
    गाढी हो गई धुप
    dr,vinod nigam

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. हर रचना के साथ कोई अनुभूति,दॄश्य अथवा घटना जुड़ी होती है जो शब्दों का रूप ले लेती है। इस मनोभाव को बाँटना भी रोचक होगा ।
    नवगीत की कार्यशाला अत्यन्त सफल एवम प्रेरणास्पद रही। आप सब को हार्दिक धन्यवाद ।

    शशि पाधा

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  5. इसमें कोई शक नहीं कि जो स्थूल आँखे देखती हैं वह मन के रास्ते से होकर श्ब्दों के वस्त्र पहन रचना के रूप में जब हमारे सामने आता है तो वास्तव में एक प्रतीक बन जाता है।
    यह कार्यशाला अपने अंदर बहुत जानकारी समेटे हुये है। न जाने आगे अभी और कितना कुछ सीखने को मिलेगा।
    सचमुच, बहुत आनन्द आ रहा है।

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