31 जुलाई 2009

१३-चाँद चमका आसमाँ पे

अश्‍कों का दरिया बहता था मेरी आँखों से

शोला सा निकलता रहता था मेरी साँसों से

आज यह खुशनसीबी कहां से आई है

चाँद चमका आसमाँ पे या तू मुस्‍कराई है.......


सुनसान सा रहता था मेरे दिल का यह घर

फिरते थे पागल बनकर हम तो दर-ब-दर

तेरे साथ के अहसास ने दिल की बस्‍ती बसाई है

चाँद चमका आसमाँ पे या तू मुस्‍कराई है.......


पहले तो बहारों में भी पतझड़ का मौसम था

पहले तो सितारों में भी अँधेरा ही अँधेरा था

नज़र तुम से मिलने पर शमा जगमगाई है

चाँद चमका आसमाँ पे या तू मुस्‍कराई है.......


कहर बरसता था दिल पर जब सावन ऋुत आती थी

श्‍मशान सा लगता था शहर होती जब कोई शादी थी

शरमाने की अदा ने तरी मुझको मोहब्‍बत सिखाई है

चाँद चमका आसमाँ पे या तू मुस्‍कराई है.......


पत्‍थर ही लगता था भगवान नहीं माना था

किसी भी इंसान को इंसान नहीं जाना था

तेरी मासूमियत ने मुझमें इंसानियत जगाई है

चाँद चमका आसमाँ पे या तू मुस्‍कराई है.......

---मुकेश पोपली

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