26 दिसंबर 2009

१- भोर खड़ी दरवाजे पर

अंधियारे गलियारों की सर्द हवाओं को तजकर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर

जाड़े की वो प्यारी बातें दिन, बौना और लम्बी रातें
ख़त डालकर अंगनाई में, धूप बुनेगी सौ जज्बातें
उम्मीदों की गठरी बांधे, ओस की बूंदों से सजकर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर

नानी माँ के तिल के लड्डू. नुक्कड़ की वो गरम जलेबी
गन्ने का रस गुड की ढेली, भली लगे अमृत फल से भी
देर शाम तक पुरवाई में तफरी के दिन गए गुजर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर

अरमानो के डालके झूले, खेतों में फिर सरसों फूले
हुलस हुलस कर अम्बर आज, खुद अपने आनन को छूले
हौले से मुस्काई धरती, हरियाली की ओढ़ चुनर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर


नियति वर्मा
जयपुर

13 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुंदर। लगता है पूरा शीतकाल आंखों के सामने सजीव हो गया हो। आभार इतनी सुंदर प्रस्तुति से 6ठी कार्यशाला का शुभारंभ करने के लिए।

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  2. सराहनीय प्रयास. यह रचना गीत और नवगीत की सीमावर्ती है. बिम्ब और प्रतीक अछूते और सहज ग्राह्य हैं.

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  3. अरमानो के डालके झूले, खेतों में फिर सरसों फूले
    हुलस हुलस कर अम्बर आज, खुद अपने आनन को छूले
    हौले से मुस्काई धरती, हरियाली की ओढ़ चुनर
    कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर


    एक बहुत ही खूबसूरत रचना..बहुत ही बढ़िया लिखते है भाई..बधाई

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  4. नियति जी,
    कोहरे की चुनरिया अवश्य रंगहीन रही होगी न ! सरसों, अम्बर धरती पर तो श्वेत उदासी रही होगी न! भोर को क्या कोहरे के छटने की चाह नहीं थी?

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  5. अरमानो के डालके झूले, खेतों में फिर सरसों फूले
    हुलस हुलस कर अम्बर आज, खुद अपने आनन को छूले
    हौले से मुस्काई धरती, हरियाली की ओढ़ चुनर
    कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर
    नियति जी, बहुत सुन्दर शब्द चित्रण है, लगता है कोहर में लिपटी भोर कोई नया संदेशा लेकर आई है ।बधाई
    शशि पाधा

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  6. "अरमानो के डालके झूले, खेतों में फिर सरसों फूले
    हुलस हुलस कर अम्बर आज, खुद अपने आनन को छूले
    हौले से मुस्काई धरती, हरियाली की ओढ़ चुनर
    कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर"
    This discription is for the raining season and not for the winter when every thing is covered under the sheet ot kohra.

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  7. मैं इस बात से सहमत नहीं कि यह वर्षा ऋतु का वर्णन है। सरसों सर्दियों में ही फूलती है और कोहरा हमेशा बर्फीली जगहों पर ही नहीं होता। हरियाले खेतों पर भी होता है। पंजाब तथा उत्तर भारत के खेतों में ऐसी सुबह कहीं भी मिल जाएगी। रचना सुंदर है सहज है, फिर भी नवगीत के हिसाब से कुछ और नए बिम्बों, नई उपमाओं और नए कथन की गुंजाइश रहती है।

    मुक्ता पाठक

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  8. मेरी इस टिप्पणी से
    पहले की कुछ टिप्पणियाँ
    इस नवगीत को
    ध्यान से पढ़े बिना
    की गई प्रतीत होती हैं!
    ऐसा लगता है कि
    इन टिप्पणीकारों को
    काव्य की समझ ही नहीं है!

    क्या बरसात केवल
    वर्षा ऋतु में ही होती है?

    अमृत फल का स्वाद जानना
    क्या सबके वश में है?

    अरमानों के झूले को
    अनुभूत करना किसे आता है?

    अंबर का आनन
    कौन देख सकता है
    और कैसी आँखों से?

    और क्या कहूँ?
    मुझे तो
    किसी और के हाथों पर रची मेंहदी
    किसी और की आँखों में भी
    दिखाई दे जाती है!

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  9. नियति जी ! बहुत सुन्दर पक्तियाँ हैं नवगीत की। लोक तत्त्व नवगीत के लिए उसका प्राण है.... आप ने इसका सटीक और प्रवाहमयी प्रयोग किया है......छन्द का भी अच्छा निर्वाह हुआ है.....आपसे और अच्छे नवगीतों की अपेक्षा रहेगी भविष्य में-
    " नानी माँ के तिल के लड्डू. नुक्कड़ की वो गरम जलेबी
    गन्ने का रस गुड की ढेली, भली लगे अमृत फल से भी
    देर शाम तक पुरवाई में तफरी के दिन गए गुजर
    कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर...."

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  10. नियति जी ! बहुत सुन्दर पक्तियाँ हैं नवगीत की। लोक तत्त्व नवगीत के लिए उसका प्राण है.... आप ने इसका सटीक और प्रवाहमयी प्रयोग किया है......छन्द का भी अच्छा निर्वाह हुआ है.....आपसे और अच्छे नवगीतों की अपेक्षा रहेगी भविष्य में-
    " नानी माँ के तिल के लड्डू. नुक्कड़ की वो गरम जलेबी
    गन्ने का रस गुड की ढेली, भली लगे अमृत फल से भी
    देर शाम तक पुरवाई में तफरी के दिन गए गुजर
    कोहरे की चादर में लिपटी भोर खड़ी दरवाजे पर...."

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  11. बढ़िया नवगीत! लगता है पाठशाला को एक नया नवगीतकार मिल गया है।

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