11 जनवरी 2010

१०- स्वागत

आए हो सिहराते
शिशिर के सिपहिये
हमने लो!
द्वार धरे मंगलमय सातिये

कोहरे की
साडी में लिपटी धवलता¸
दातों के बीन बजे गीत में नवलता.
हिमगिरि से
ले आए बर्फ भरीं पेटियां¸
धरती के आंगना¸
धर कर,तुम चल दिए.

दिखलाते
हमको हो झीनी चंदरिया¸
कहाँ धरी सूरज की भेजीं रजाइयाँ.
सरगम को छोड़
कहीं निःस्वर क्यों हो गए¸
सांसों का स्पन्दन
ठहरा कर चल दिए

कितनी
विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें¸
जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें.
रूखे अन्तस्तल
में शीतलता भर गए¸
तन्द्रा तब टूटी
झकझोर कर चल दिए

निर्मला जोशी
भोपाल

7 टिप्‍पणियां:

  1. निर्मला जी ने
    बहुत अच्छा प्रयास किया है!
    बधाई और शुभकामनाएँ!

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  2. इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।

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  3. निर्मला जी, खूब बढ़िया रहे शिशिर के सिपहिए, बर्फ की पेटियाँ और सूरज की रजाइयाँ। मज़ा आ गया।

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  4. निर्मला जी, मुझे आपका हर गीत/नवगीत बहुत ही पसन्द है । इस नवगीत में शिशिर के सिपहिए का आह्वान गीत में मधुर भाव का संचार करता है। और इन पँक्त्तियों को नमन करती हूँ---
    "कितनी
    विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें¸
    जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें.
    रूखे अन्तस्तल
    में शीतलता भर गए¸
    तन्द्रा तब टूटी
    झकझोर कर चल दिए "

    सधन्यवाद।
    शशि पाधा

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  5. आए हो सिहराते
    शिशिर के सिपहिये
    हमने लो!
    द्वार धरे मंगलमय सातिये
    वाह.. वाह... बधाई

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  6. कोहरे की
    साडी में लिपटी धवलता¸
    ¸
    दिखलाते
    हमको हो झीनी चंदरिया¸
    खूब बढ़िया!

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  7. अधिक क्या कहूँ निर्मला जी बस सदा की तरह अति सुंदर!

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