आए हो सिहराते
शिशिर के सिपहिये
हमने लो!
द्वार धरे मंगलमय सातिये
कोहरे की
साडी में लिपटी धवलता¸
दातों के बीन बजे गीत में नवलता.
हिमगिरि से
ले आए बर्फ भरीं पेटियां¸
धरती के आंगना¸
धर कर,तुम चल दिए.
दिखलाते
हमको हो झीनी चंदरिया¸
कहाँ धरी सूरज की भेजीं रजाइयाँ.
सरगम को छोड़
कहीं निःस्वर क्यों हो गए¸
सांसों का स्पन्दन
ठहरा कर चल दिए
कितनी
विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें¸
जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें.
रूखे अन्तस्तल
में शीतलता भर गए¸
तन्द्रा तब टूटी
झकझोर कर चल दिए
निर्मला जोशी
भोपाल
निर्मला जी ने
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा प्रयास किया है!
बधाई और शुभकामनाएँ!
इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।
जवाब देंहटाएंनिर्मला जी, खूब बढ़िया रहे शिशिर के सिपहिए, बर्फ की पेटियाँ और सूरज की रजाइयाँ। मज़ा आ गया।
जवाब देंहटाएंनिर्मला जी, मुझे आपका हर गीत/नवगीत बहुत ही पसन्द है । इस नवगीत में शिशिर के सिपहिए का आह्वान गीत में मधुर भाव का संचार करता है। और इन पँक्त्तियों को नमन करती हूँ---
जवाब देंहटाएं"कितनी
विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें¸
जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें.
रूखे अन्तस्तल
में शीतलता भर गए¸
तन्द्रा तब टूटी
झकझोर कर चल दिए "
सधन्यवाद।
शशि पाधा
आए हो सिहराते
जवाब देंहटाएंशिशिर के सिपहिये
हमने लो!
द्वार धरे मंगलमय सातिये
वाह.. वाह... बधाई
कोहरे की
जवाब देंहटाएंसाडी में लिपटी धवलता¸
¸
दिखलाते
हमको हो झीनी चंदरिया¸
खूब बढ़िया!
अधिक क्या कहूँ निर्मला जी बस सदा की तरह अति सुंदर!
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