17 फ़रवरी 2010
३- उदासी के पाखी : गीता पंडित (शमा)
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
लगता जैसे कहीं मयूरी
ने फागुन को याद किया,
या चकवी ने तानपुरे पर
अश्रु भरा आलाप लिया,
प्रीत रंग में रंगी चुनरिया
देख एकाकी मन बिलखाये
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
किसने थे ये सुर छनकाये
मीरा मन के आंगन में,
हर एक गीत में तुम ही तुम
राग बना मन फागन में,
आज तुम्हारे बिन ना बाजे
घुंघरू मन के बिसराये,
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
जहाँ मीत ने छोड़ा पथ में
उसी जगह पर खड़े हुए,
प्रीत ने डाले ऐसे डोरे
नयन सीप में जड़े हुए,
सुधियों के मेघा घिर आये
अंतर ने सागर पाये,
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ॥
--
गीता पंडित (शमा)
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कार्यशाला : ०७
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बहुत बदिया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंलगता जैसे कहीं मयूरी
जवाब देंहटाएंने फागुन को याद किया,
या चकवी ने तानपुरे पर
अश्रु भरा आलाप लिया,
प्रीत रंग में रंगी चुनरिया
देख एकाकी मन बिलखाये
Beautiful.
सुंदर लय व ताल मे रचित एक उत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंबधाइ
अच्छा नवगीत है , बस 'देख एकाकी मन बिलखाये'पंक्ति कुछ भारी पड़ रही है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर शब्द संयोजन, मोहक कल्पना तथा लय से परिपूर्ण है यह गीत।
जवाब देंहटाएंलगता जैसे कहीं मयूरी
ने फागुन को याद किया,
या चकवी ने तानपुरे पर
अश्रु भरा आलाप लिया,
गीता जी यह पंक्त्तियाँ बहुत ही भाईं।
बधाई।
शशि पाधा
bahut sunder abhivyakti
जवाब देंहटाएंbadhai
saader
rachana
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
पहुँच गए,
जवाब देंहटाएंतो क्या हुआ?
आज उदासी के पाखी!
इन्हें मत देना लिफ्ट,
करेंगे ख़ुद ही शिफ्ट!
इन्हें मत गले लगाना,
मीत मत इन्हें बनाना!
लो बसंत आ गया,
नेह से तुम्हें मनाने!
लो बसंत छा गया,
तुम्हारे नयन सजाने!
नयन में इसे सजा लो,
सुमन में इसे बसा लो!
नवगीत के मीत!
अब तो मुस्करा दो!
--
जिस गीत को पढ़कर,
मेरे मन ने इतना सब कुछ रच दिया!
वह तो मनभावन ही हो सकता है!
इस नवगीत के बारे में
जवाब देंहटाएंहिमांशु जी के कथन से भी मेरी सहमति है!
जहाँ मीत ने छोड़ा पथ में
जवाब देंहटाएंउसी जगह पर खड़े हुए,
प्रीत ने डाले ऐसे डोरे
नयन सीप में जड़े हुए,
सुधियों के मेघा घिर आये
अंतर ने सागर पाये,
नवगीत ने छू लिया।लयकारी का जवाब नहीं।
आज उदास होंगे,निश्चय ही ये पाखी अगले बसंत कलरव करते मिलेंगे_ हैं ना गीता जी!
आभार.....
जवाब देंहटाएंआप सभी गुणीजन का...
फिर से गीत लिख रही हूँ...
उदासी के पाखी
जवाब देंहटाएं...........
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
लगता जैसे कहीं मयूरी
ने फागुन को याद किया,
या चकवी ने तानपुरे पर
अश्रु भरा आलाप लिया,
प्रीत रंग में रंगी चुनरिया
फाग रंग क्यूँ ना गाये,
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
किसने थे ये सुर छनकाये
मीरा मन के आंगन में,
हर एक गीत में तुम ही तुम
राग बना मन फागन में,
आज तुम्हारे बिन ना बाजे
घुंघरू मन के बिसराये,
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ।
जहाँ मीत ने छोड़ा पथ में
उसी जगह पर खड़े हुए,
प्रीत ने डाले ऐसे डोरे
नयन सीप में जड़े हुए,
घिर-घिर आये मेघा सुधि के
अंतर ने सागर पाये,
आज उदासी के पाखी लो
लौट कहाँ से फिर आये ॥
गीता पंडित (शमा)
आभार |
इस गीत में बहुत नवीनता का आग्रह तो नहीं है फिर भी उदासी के पाखी एक मोहक प्रयोग है, सरल सहज छंद और भाषा का प्रयोग हुआ है गीत में तरलता है जो इसे सादगीपूर्ण सुंदर नवगीत बनाते हैं।
जवाब देंहटाएंएक अलग पृष्ठभूमि का सरस नवगीत. मन को भाया. कहीं-कहीं लय भंग प्रतीत हुआ.
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