हाथ में
बंदूक लेकर
आ गया आतंक!
काँपता बाज़ार,
थर्राते हैं चौराहे।
स्वप्न-पक्षी के
परों को अब कोई बाँधे।
लो, खुले आकाश पर
गहरा गया आतंक!
आज रिश्ते काँच की
दीवार से लड़ते।
देहरी पर नई कीलें
ठोंककर हँसते।
सुर्ख आँखों पर उतरकर
छा गया आतंक!
सभ्यता विश्वास के घर
हो गई शैतान।
सत्य के नीचे खुली है
झूठ की दूकान।
रक्त-सिंचित पाँव धर
बौरा गया आतंक!
--डॉ. ओमप्रकाश सिंह
बहुत ही सामयिक नवगीत है!
जवाब देंहटाएंनवगीत में बहुत उपयुक्त व
जवाब देंहटाएंसामयिक कथन है.
आज रिश्ते काँच की
जवाब देंहटाएंदीवार से लड़ते।
देहरी पर नई कीलें
ठोंककर हँसते।
सुर्ख आँखों पर उतरकर
छा गया आतंक!
बहुत खूब ... एक अच्छे नवगीत के लिए बहुत-बहुत बधाई.
सभ्यता विश्वास के घर
जवाब देंहटाएंहो गई शैतान।
सत्य के नीचे खुली है
झूठ की दूकान।
रक्त-सिंचित पाँव धर
बौरा गया आतंक!
बिलकुल सही बात कह दी है....अच्छा नवगीत
मारतीं
जवाब देंहटाएंमधु मक्खियाँ ही
गुलाबों को डंक.
ॐ छाता व्योम में
फैला रहा प्रकाश.
सिंह गर्जन सुन
लिये है अँधेरा अवकाश.
भाव बिम्बों को लिये है
गीत नव निज अंक...
आतंक के प्रभाव का सही चित्रण है इस नवगीत में। धन्यवाद ।
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