बस्ती बस्ती आ पहुँची है
जंगल की खूँख्वार हवाएँ।
उत्पीड़न अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली।
रखवाले पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली।
चल पड़ने की मज़बूरी में
पग पग उगती हैं शंकाएँ।
कोलाहल गलियों-गलियारे
जगह-जगह जैसे हो मेला।
संकट के क्षण हर कोई पाता
अपने को ज्यों निपट अकेला।
अपराधों के हाथ लगी हैं
रथ के अश्वों की वल्गाएँ।
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डॉ विद्यानंद राजीव
अपने आप में ढ़ेर सारे अर्थ समेटे सुन्दर रचना। वाह।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
रखवाले पथ से भटके हैं
जवाब देंहटाएंजन की कौन करे रखवाली।
सच है बाड़ ही खेत को खा जाये तो कौन बचायेगा...बहुत बढ़िया नवगीत
नवगीतों से महक उठे हैं
जवाब देंहटाएंकविता कानन, मस्त फिजायें.
मुखर हुई है नेह नर्मदा.
सहकर हिंसा की बटमारी।
महका है राजीव बिना भय-
जले न हिंसा की चिंगारी.।
स्थाई-अंतरे संतुलित
गति-यति भावों को सरसायें।
बस्ती बस्ती आ पहुँची है
जवाब देंहटाएंजंगल की खूँख्वार हवाएँ।
बहुत बढ़िया!