13 जुलाई 2010

०३ : होते होते रह गया

खिलते खिलते रह गया आज फिर नील कमल
होते होते रह गया आज फिर मन निर्मल

आते आते खो गयी
किरण की नाव कहीं
बसते बसते रह गया
स्वप्न का गाँव कहीं
पूजा के पहले ही
दीपक बुझ गया और
सब बिखर गये
कुंकुम, गुलाल, हल्दी चावल
खिलते खिलते रह गया आज
फिर नील कमल

पथ ही अमित्र हो गया
लक्ष्य प्रतिकूल न था
अँजुरियों में थी तृषा
कि उनमें फूल न था
आरती सजी पर
शब्द पात्र सब रिक्त पड़े
रह गया शेष फिर वही
व्यथा का विंध्याचल
खिलते खिलते रह गया आज
फिर नील कमल
--
हरि ठाकुर

14 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ..वाह...!
    बढ़िया नवगीत है!
    मगर गेयता शून्य है!

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  2. सुन्दर नव गीत
    मयंक जी ने सही कहा गीत का प्रवाह बाधित हो रहा है.

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  3. खिलते खिलते रह गया नील कमल ज्यों मीत
    बनते बनते रह गया यह प्यारा नवगीत
    भ्रमर चूमता जब उसे
    खिलता है मीत
    करते रहो प्रयास तो
    बन जाता नवगीत !!

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  4. छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ लेखक स्व. हरिठाकुर का यह गीत निश्चय ही नवगीत की पाठशाला के लिये नहीं लिखा गया होगा। शायद गीत में कमल देखकर समूह के सदस्यों ने इसे यहाँ प्रकाशित कर दिया। यह रचना उनके मरणोपरांत प्रकाशित संग्रह "हँसी नाव सी" से ली गई है। मरणोपरांत प्रकाशित रचनाओं में अकसर उस अंतिम स्पर्श की कमी रह जाती है जो रचनाकार जीवित अवस्था में अपनी रचनाओं के प्रकाशन से पूर्व देता है। निराला की बेला में भी कुछ ऐसे गीत देखे जा सकते हैं। अतः इस गीत को नवगीत के मानदंडों पर कसना उचित नहीं होगा।

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  5. प्रवाह तो एक ही जगह बाधित हो रहा है, अँजुरियों की जगह अंजुरियों कर दिया जाय तो ठीक हो जाएगा। मेरे विचार में मूल रचना में अंजुरियों ही रहा होगा। गाने में मुझे तो कोई दिक्कत नहीं आई। सुन्दर नवगीत है।

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  6. गीत अपने आप में संपूर्ण है। हो सकता है कि रचनाकार ने अपने जीवन में प्रकाशित करवाया होता तो और बेहतर होता। समूह का धन्यवाद कि उन्होंने एक वरिष्ठ रचनाकार की रचना को पढ़ने का अवसर दिया।

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  7. मुक्ता जी, आप गीतों की भयंकर अध्येता लगती हैं। आपने गीत के रचयिता और संग्रह को ठीक पहचाना। इस गीत में कुछ बेहद आकर्षक रुपक और बिम्ब हैं जिसके कारण पाठशाला में प्रस्तुत किया गया जैसे व्यथा का विंध्याचल, पथ ही अमित्र हो गया, अँजुरियों में थी तृषा, किरण की नाव आदि। टिप्पणीकारों से अनुरोध है कि हर गीत में क्या सार्थक है उसकी ओर देखने की कोशिश अवश्य इंगित करें। अन्यथा सीखने को कुछ नहीं मिलेगा जिसके लिये इस मंच का निर्माण हुआ है।

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  8. पथ ही अमित्र हो गया
    लक्ष्य प्रतिकूल न था
    अँजुरियों में थी तृषा
    कि उनमें फूल न था
    बेहद सुंदर बात कही है हरि जी ने। पथ अमित्र हो जाता है अगर अँजुरी में केवल तृषा हो फूल न हों। पहले फूल अर्पित करने के बाद खाली अँजुरी से कुछ माँगा जाता है। मैं तो मुग्ध हो गया इन पंक्तियों पर।

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  9. मन मुग्ध हो गया इस गीत कि एक एक पंक्ति पढ़ कर....सुन्दर नवगीत

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  10. जीवन को बहुत करीब से देखने का साहस वहुत कम लोगों के पास होता है और जितने लोग उसे देख पाते हैं, उनमें से बहुत कम ऐसे होते हैं जो आमने-सामने खड़े होकर उससे आँख मिला सकें। रोते-रोते जीना और चुप रहना, यही आम तौर पर जीवन का मुहावरा बन गया है। हरि ठाकुर उसे करीब से देखते भी हैं, उससे आंख भी मिलाते हैं और उसकी परिणति को शब्द भी देते हैं। यहीं वे संपूर्ण कवि होते हैं। किरन की नाव खो गयी तो क्या, स्वप्न का गांव नहीं बसा तो क्या, पूजा के पहले ही दीपक बुझ गया तो क्या, पथ ने साथ नहीं दिया तो क्या और अगर व्यथा का विंध्याचल ही शेष रह गया तो भी क्या, नील कमल की स्मृति तो नहीं गयी। ऊपर से लगातार टूटते सपनों का संसार दिख रहा है पर पीछे आशा और प्रतीक्षा का एक विराट आकाश है। हरि को प्रणाम। वे होते तो उनसे मिलने में प्रसन्नता होती।

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  11. विमल कुमार हेड़ा16 जुलाई 2010 को 7:53 am बजे

    आते आते खो गयी
    किरण की नाव कहीं
    बसते बसते रह गया
    स्वप्न का गाँव कहीं
    एक सुन्दर गीत के लिये रचनाकार को कोटि कोटि प्रणाम
    विमल कुमार हेड़ा

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  12. स्व. हरि ठाकुर जी की पुन्टा स्मृति मानस पट पर अब तक है. निधन के चंद दिन पूर्व रामकिंकर चिकित्सालय रायपुर में उनसे अंतिम भेँट श्री चेतन भारती के साथ हुई थी. एक वैवाहिक निमंत्रण पत्र पर उनकी हस्तलिपि में चिकित्सालय में उसी दिन दो रचनाएँ तथा उनका संभवतः अंतिम चित्र मेरी बहुमूल्य पूंजी है. उनका जीवन दर्शन इस गीत में स्पष्ट है. वे छतीसगढ़ के अभिकल्पक और इसके जन्म के लिये प्राण-प्राण से संघर्ष करनेवाले सबसे पहले और सबसे अधिक समर्पित थे किन्तु जन्म के साथ ही स्वप्न भंग की स्थिति बन्ने लगी थी. नेता, अफसर और व्यापारी का त्रिगुट किसी ईमानदार समाज सेवक को परिवर्तन का कमल कैसे खिलाने देता?

    पथ ही अमित्र हो गया
    लक्ष्य प्रतिकूल न था
    अँजुरियों में थी तृषा
    कि उनमें फूल न था
    आरती सजी पर
    शब्द पात्र सब रिक्त पड़े
    रह गया शेष फिर वही
    व्यथा का विंध्याचल
    खिलते खिलते रह गया आज
    फिर नील कमल

    यह सब तो उस दिन की चर्चा में भी था. गहन समाजिक-राजनैतिक दर्शन और स्वप्न-भंग होने ही हताशा, निराशा अपने अंत की अनुभूति और अंततः परिवर्तन का अवसर आने पर परिवर्तन न हो पाने की व्यथा-कथा कितनी सटीकता, कितनी सरसता, कितनी गेयता और कितने मौलिक बिम्बों-प्रतीकों के साथ है. मुझे यह कहना होता तो ऐसे प्रतीक, ऐसे बिम्ब, ऐसे भाव, ऐसा शिल्प न ला पाता. शत-शत वंदन कलम के उस पुजारी को, उसकी मेधा को, उसके गीत को. नवगीत के मानकों पर इससे अधिक खरा और क्या हो सकता है?

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  13. पथ ही अमित्र हो गया
    लक्ष्य प्रतिकूल न था
    अँजुरियों में थी तृषा
    कि उनमें फूल न था

    बेहद सुंदर ....

    हरि जी .....को वंदन .....

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  14. एक संुदर व सहज लयताल में आबद्ध सुमधुर नवगीत
    बधाई।
    पथ ही अमित्र हो गया
    लक्ष्य प्रतिकूल न था
    अँजुरियों में थी तृषा
    कि उनमें फूल न था
    आरती सजी पर
    शब्द पात्र सब रिक्त पड़े
    रह गया शेष फिर वही
    व्यथा का विंध्याचल
    खिलते खिलते रह गया आज
    फिर नील कमल

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