आषाढ़ से आकाश अब तक रो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है
आज पानी बन गया जंजाल है
भूख से पंछी हुए बेहाल हैं
रश्मियों को सूर्य अपनी खो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है
कब तलक नौका चलाएँ मेह में
भर गया पानी गली और गेह में
इन्द्र जल-कल खोल बेसुध सो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है
बिन चुगे दाना गगन में उड़ चले
घोंसलों की ओर पंछी मुड़ चले
दिन-दुपहरी दिवस तम को ढो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है
--
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308
फोनः05943-250207, 09368499921, 09997996437
बादलों को इस बरस कुछ भी हो रहा हो,
जवाब देंहटाएंपर मयंक जी के इस गीत में बरखा का
सजीव चित्रण दृष्टिगोचर हो रहा है!
बहुत सुन्दर नवगीत ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जी ,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशास्त्रीजी, दिवस का तमस हमने ही, आदमी ने ही पैदा किया है. बादलों को जो कुछ हो रहा है, वह हमारा ही किया-धरा है. भुगतना भी हमें ही पड़ेगा. आप तो कवि मन हैं, सहज सवाल करते हुए, पर उत्तर भी आप ही देंगे. एक अच्छे गीत के लिये बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम एक अच्छे नवगीत के लिए मयंक जी को बधाई!
जवाब देंहटाएंभूख से पंछी हुए बेहाल हैं,
बिन चुगे दाना गगन में उड़ चले,
घोंसलों की ओर पंछी मुड़ चले,
ये पंक्तियाँ यदि साथ होतीं तो कहीं अधिक प्रभावी होतीं.
धन्यवाद!
वास्तव में मन की बात इस सुन्दर नवगीत में आपने जाहिर की है बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंमयंकजी,
जवाब देंहटाएंनभनालों के सर्पों ने है फन फैलाए,
अनगिनत जिव्वाहएं निकली लबलबाए,
इन्द्र क्रोधित न जाने क्यों हो रहा है?
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है?
कृपया देखें:
अब लोकगीतों के सन्दर्भ में अर्थ भी दिया गया है.
लोकगीत-
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49 Posts, last published on Sep 22, 2010 – View Blog
सरस सार्थक गीति रचना से मन आनंदित हुआ. मेघ का पक्ष पाठक पंचायत में प्रस्तुत है:
जवाब देंहटाएंमेघ का पक्ष:
संजीव सलिल'
*
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
******************
बिन चुगे दाना गगन में उड़ चले
जवाब देंहटाएंघोंसलों की ओर पंछी मुड़ चले
दिन-दुपहरी दिवस तम को ढो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है
बहुत सुन्दर नवगीत| बहुत बहुत बधाई|
“‘‘बादलों को इस बरस क्या हो रहा है’’ सहज और ऐसे ही गेय रचनाओं का हम तहेदिल से स्वागत करते है। मयंक जी को हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत बधाई।
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