
सूरज आज रहा है खींच
धोबन-बदली इस धरती के
मैले वसन रही है फींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच
चश्मे की छतरी के नीचे
बैठी आँखें इतराती हैं
आँतें आँतों को डकारकर
ना जाने क्या-क्या गाती हैं
गंगा-तट पर बैठा बगुला
दबा रहा मछली की घींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच
रात-भर अँधेरे को पूज चुके
लोगों को नींद आ रही है
फोड़ चुकी कौवी के अंडों को
कोयल अब मुस्करा रही है
सुन लेते हैं गीत अवांछित भी
सब अपनी आँखें मींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच
--
रावेंद्रकुमार रवि
बहुत सुन्दर कविता है!
जवाब देंहटाएं--
इस नवगीत के लिए साधुवाद!
बहुत सुंदर कविता जी, नवरात्रो की आपको भी शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएं"धोबन-बदली इस धरती के
जवाब देंहटाएंमैले वसन रही है फींच "
बधाई! इस काव्य-चित्र के लिए आपके हाथ चूम लेने का दिल कर रहा
है...भाई!
वाह... वाह... धोबन बदली बिलकुल मौलिक और सारगर्भित बिम्ब...
जवाब देंहटाएं