10 अक्तूबर 2010

२३. फिर भी है कींच

इंद्रधनुष की डोरी नभ में
सूरज आज रहा है खींच
धोबन-बदली इस धरती के
मैले वसन रही है फींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

चश्मे की छतरी के नीचे
बैठी आँखें इतराती हैं
आँतें आँतों को डकारकर
ना जाने क्या-क्या गाती हैं
गंगा-तट पर बैठा बगुला
दबा रहा मछली की घींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

रात-भर अँधेरे को पूज चुके
लोगों को नींद आ रही है
फोड़ चुकी कौवी के अंडों को
कोयल अब मुस्करा रही है
सुन लेते हैं गीत अवांछित भी
सब अपनी आँखें मींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच
--
रावेंद्रकुमार रवि

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कविता है!
    --
    इस नवगीत के लिए साधुवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर कविता जी, नवरात्रो की आपको भी शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  3. "धोबन-बदली इस धरती के
    मैले वसन रही है फींच "

    बधाई! इस काव्य-चित्र के लिए आपके हाथ चूम लेने का दिल कर रहा
    है...भाई!

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह... वाह... धोबन बदली बिलकुल मौलिक और सारगर्भित बिम्ब...

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।