
नूपुर-झाँझ
प्रीतम-मीत का!
गा रही है गीत
अब गोधूलि
सोनल प्रीत का!
क्वाँर की इस साँझ
साजन ने
न जाने कह दिया क्या
मधुर उसके कान में!
फिर रही सजनी पुलक
घर-आँगने
मोहिनी मुस्कान मन-भर
सज नए परिधान में!
छुअन को महका रहा है
सरस झोंका प्यार-सा
मधु-सीत का!
चल पड़ा है सिलसिला अब
हर नवेली रात में
नव-रीत का!
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रावेंद्रकुमार रवि
गीत बहुत ही मनोहारी है, शब्द चयन भी श्रेष्ठ है। लेकिन मैं यहाँ इस गीत की विवेचना की बात कर रही हूँ जिससे हमें नवगीत की सार्थकता के बारे में ज्ञात हो सके। क्योंकि यह आदर्श गीत है इसलिए इसकी विवेचना होनी ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंसुन्दर नवगीत से कार्यशाला की शुरुआत करने के लिए रवीन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर प्रस्तुति . धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर गीत ....
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर प्रस्तुति रावेंद्रकुमार रवि जी बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंसार्थक नवगीत के लिए
शंभु शरण "मंडल"
नवगीत में मन की महक परिलक्षित हो रही है!
जवाब देंहटाएं--
कार्यशाला का शुभारम्भ रवि जी के सुन्दर नदगीत से किया गया है!
नव गीत अपनी भाषिक शुद्धता, प्रवाह, बिम्बादी की दृष्टि पर खरा है किन्तु देशज टटकापन पूरी तरह अनुपस्थित है.
जवाब देंहटाएंछुअन को महका रहा है
सरस झोंका प्यार-सा
मधु-सीत का!
यहाँ ''मधु-सीत का'' आशय पूरी तरह समझ नहीं सका. कृपया, समझा दें तो अधिक आनंद ले सकूंगा.
प्रिय गीता जी
जवाब देंहटाएंइतनी सुंदर रचना के लिए बधाई | कविता के दूसरे बंध में बंजर होंगे के स्थान पर हुए होना चाहिए | कृपया विचार करिएगा |
शुभकामनाओं के साथ
अशोक
ashoks@bhel.in